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शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

क्या गलत हैं न्यूटन के नियम !

नौवीं कक्षा के छात्र ने उठाये सवाल, आरोप लगाया कि पुस्तकों में गलत पढ़ाये जा रहे हैं न्यूटन के नियम 

नवीन जोशी नैनीताल। दुनिया को गुरुत्वाकर्षण का वैज्ञानिक सिद्धांत देने वाले सर आइजेक न्यूटन ने वास्तव में बल के कौन से तीन नियम दिये थे, इस पर विवाद हो सकता है। पर बच्चों को स्कूली पुस्तकों में जो पढ़ाया जा रहा है, उस पर नगर के नौवीं कक्षा के एक होनहार छात्र अभिषेक अलिग ने सवाल उठाये हैं। अभिषेक का कहना है कि न्यूटन के पहले यानी ‘जड़त्व के सिद्धांत’ के नियम में बल की दिशा का कोई जिक्र नहीं है, जबकि बल एक सदिश यानी वैक्टर राशि है। बल की दिशा का जिक्र किये बिना न्यूटन के सिद्धांत का प्रयोग किसी भी दशा में नहीं किया जा सकता, जबकि प्रयोग के बिना वैज्ञानिक सिद्धांत का कोई अर्थ ही नहीं है। वहीं तीसरा सिद्धांत निर्वात की स्थिति में लागू नहीं हो सकता है। 
अभिषेक नगर के सेंट जोसफ कालेज का छात्र है। रसायन, भौतिकी और गणित विषयों की उसमें विलक्षण तर्क की क्षमता नजर आती है। वह इन विषयों में हमेशा कक्षा में प्रथम भी रहता है और अपने से बड़ी कक्षाओं के छात्रों से भी तर्क करता है। विज्ञान को तकरे की कसौटी पर कसने की जैसे उसे धुन सवार है। इसके लिए वह विज्ञान की विदेशी भाषाओं की पुस्तकों और इंटरनेट पर भी खूब अध्ययन करता है। 
अपनी आईसीएसई बोर्ड की नौवीं कक्षा की पुस्तक में प्रकाशित न्यूटन के पहले नियम पर सवाल उठाते हुए उसका कहना है कि यह नियम कहता है कि किसी पिंड पर जब तक कोई बाहरी बल न लगाया जाये तब तक उसकी स्थिति में परिवर्तन नहीं आ सकता। यानी यदि पिंड कहीं पर स्थिर रखा है तो वह कोई बल लगाने तक गतिमान नहीं हो सकता, साथ ही यदि वह गतिमान है तो बल लगाये बिना रुक नहीं सकता। अभिषेक के अनुसार इस नियम में बल की दिशा का कोई उल्लेख नहीं है, साथ ही यह भी नहीं कहा गया है कि यह नियम हर दशा में प्रभावी रहता है या निर्वात में। क्योंकि बल बिना दिशा के लगाया ही नहीं जा सकता, क्योंकि बल एक सदिश राशि है। बिना दिशा के बल का कोई औचित्य नहीं है। न्यूटन विज्ञान के इस सामान्य से सिद्धांत से अनभिज्ञ थे अथवा पुस्तकों में गलत पढ़ाया जा रहा है। इंटरनेट पर न्यूटन के नियम में बल की जगह ‘नेट फोर्स’ यानी शुद्ध बल शब्द का प्रयोग किया गया है। यहां शुद्ध शब्द भी बड़ा अंतर पैदा करता है। शुद्ध बल में पिंड पर लगने वाले गुरुत्वाकर्षण, घर्षण एवं पिंड के स्वयं के भार से उत्पन्न स्थैतिक जैसे सभी बल भी शामिल होते हैं। इन बलों के कारण ही एक दशा तक किसी पिंड को एक कम क्षमता का बल लगाकर भी स्थिर से गतिमान या गतिमान से स्थिर नहीं किया जा सकता। अभिषेक खासकर इस बात पर भी सवाल उठाता है कि किसी स्थिर पिंड पर यदि ऊपर या नीचे की दिशा से बल लगाया जाये तो उसे गतिमान नहीं किया जा सकता है, तो ऐसे में न्यूटन का प्रथम सिद्धांत कैसे माना जा सकता है। वह इस बात से भी इत्तेफाक नहीं रखता कि बल के साथ दिशा का जिक्र ना करना एक सामान्य वैज्ञानिक तथ्य मानकर शामिल न किया जाता हो, क्योंकि न्यूटन के दूसरे सिद्धांत में बल की दिशा का साफ-साफ जिक्र किया जाता रहा है। अभिषेक यह भी मानता है कि न्यूटन ने संभवतया लैटिन भाषा में जो नियम प्रतिपादित किय, उनमें बल के साथ दिशा का भी जिक्र हो, किंतु स्कूली पुस्तकों में यह शब्द हटा दिये गये। यदि ऐसा है तो यह देश की शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करने वाली बात है कि क्यों बच्चों को गलत पढ़ाया जा रहा है। विशेषज्ञ कुछ हद तक सहमत : अभिषेक के तर्क से कुमाऊं विवि के भौतिकी विभागाध्यक्ष प्रो. हरीश चंद्र चंदोला भी काफी हद तक सहमत नजर आते हैं। हालांकि उनका कहना है कि वास्तव में न्यूटन के नियम में बल के साथ दिशा का जिक्र रहा है। वह बताते हैं न्यूटन के नियम ऐसी आदर्श स्थिति के लिए हैं, जिसमें अन्य किसी प्रकार के बलों के न होने की कल्पना की गई है। ऐसा वास्तविक स्थितियों में संभव नहीं होता। उन्होंने माना कि बच्चों के पाठय़क्रम में उन परिस्थितियों का जिक्र किया जाना भी जरूरी है, जिनमें वह लागू होते हैं।
मूलतः यहाँ  देख सकते हैं :  http://rashtriyasahara.samaylive.com/epapermain.aspx?queryed=14&eddate=10/10/2012 

यह भी पढ़ें: 1. गलत हैं न्यूटन के नियम ! 

2. न्यूटन ने नहीं दिया था गति का दूसरा नियम!

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

सवा पांच करोड़ साल का हुआ अपना 'हिमालय'

कुमाऊं विवि के भूविज्ञान विभाग ने अंतरराष्ट्रीय शोध के बाद निकाला निष्कर्ष 
रेडियो एक्टिव डेटिंग से पहुंचे परिणाम तक  
नवीन जोशी नैनीताल। हिमालय की उत्पत्ति के संबंध में लगातार शोध हो रहे हैं। वैज्ञानिकों में हिमालय की शुरुआत को लेकर अलग-अलग मत हैं। कोई इसे दो करोड़, तो कोई तीन करोड़ और कोई साढ़े पांच करोड़ वर्ष पुराना साबित कर रहा है। शोध के इन दावों के बीच कुमाऊं विवि के भूविज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने भी एक और शोध करने का दावा किया है। इन वैज्ञानिकों का कहना है कि लगभग छह वर्ष तक शोध करने के बाद यह पता लगा है कि हिमालय के बनने की शुरुआत सवा पांच करोड़ वर्ष पहले हुई थी। 
कुमाऊं विवि के भूविज्ञान विभाग के वैज्ञानिकों ने अत्याधुनिक उपकरणों के साथ किए एक अंतरराष्ट्रीय शोध के बाद दावा किया है कि हिमालय के जन्म की मुख्य वजह भारतीय उपमहाद्वीपीय प्लेट के यूरेशियन (तिब्बती प्लेट) में टकराने की शुरुआत 52.2 मिलियन यानी 5.22 करोड़ वर्ष पूर्व हुई थी और इसके बाद टकराने की यह प्रक्रिया लम्बे समय तक जारी रही। वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि अब भी भारतीय प्लेट का 35 मिमी प्रति वर्ष की दर से उत्तर की ओर खिसकते हुए यूरेशियन प्लेट में धंस रही है और यही इस क्षेत्र में बड़े भूकंपों की आशंका को बढ़ाने वाला है। कुमाऊं विवि के भूविज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. संतोष कुमार ने सोमवार को ‘राष्ट्रीय सहारा’ से इस नये शोध के परिणामों का खुलासा करते हुए यह दावा किया। उन्होंने बताया कि कुमाऊं विवि का शोध पूर्व में भारतीय उपमहाद्वीप और तिब्बत की ओर पाए जाने वाले समान प्रकार के जानवरों के परीक्षण के आधार पर किए गए शोधों के आधार पर किए गए शोधों के करीब है, जिसमें हिमालय की उम्र 55 मिलियन वर्ष बतायी जाती है। उन्होंने बताया कि कुमाऊं विवि द्वारा यह परिणाम लद्दाख में पाई जाने वाली ग्रेनाइट की चट्टानों में मिले एक खास अवयव जिरकॉन की चीन व कोरिया में अत्याधुनिक ‘सेन्सिटिव हाई रेजोल्यूसन आयन माइक्रो प्रोब’ (श्रिम्प) तकनीक से आयु का पता लगाकर निकाला गया है। इसे रेडियोएक्टिव डेटिंग भी कहते हैं। उन्होंने बताया कि अंतरराष्ट्रीय शोध जर्नल में इसका प्रकाशन भी हो रहा है। इस शोध के आधार पर प्रो. कुमार कहते हैं कि सर्वप्रथम हिमालय के स्थान पर उस दौर में मौजूद टेथिस महासागर की सामुद्रिक प्लेटें आपस में टकराने से पिघलीं और इसके लावे से लद्दाख के पठारों का और बाद में भारतीय व यूरेशियन प्लेट के अनेक स्थानों पर लंबे समय अंतराल में अलग-अलग टकराने की वजह से वर्तमान हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। इस शोध परियोजना में प्रो. कुमार के साथ ही विवि के डा. बृजेश सिंह, डा. मंजरी पाठक व डा. सीता बोरा आदि प्राध्यापकों व शोध छात्र-छात्राओं का भी योगदान है। 

सोना, तांबा के भंडार खोजने में मिलेगी मदद 
नैनीताल। कुमाऊं विवि द्वारा किया गया शोध हिमालय की वास्तविक उम्र जानने में तो मदद करता ही है, साथ ही इसके दूरगामी लाभ इस संदर्भ में भी हैं कि इसके जरिए हिमालय के भूगर्भ में पाई जाने वाली बहुमूल्य खनिज संपदा के बारे में भी पता लगाया जा सकता है। प्रो. कुमार कहते हैं कि इस तकनीक की मदद लेते हुए तांबा, सोना व मालिब्डेनम जैसे खनिजों की उपस्थिति वाले क्षेत्रों में इन तत्वों की खोज की संभावनाएं बढ़ सकती हैं।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

डीएनए जांच में चूक को लेकर एनडी का तर्क सिरे से खारिज


नवीन जोशी, नैनीताल। पितृत्व विवाद में फंसे प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी के डीएनए जांच में त्रुटि होने और एक लाख मामलों में से एक मामले में त्रुटि की संभावना जताकर स्वयं को निदरेष साबित करने की दलील को फारेंसिक विशेषज्ञ स्वीकार नहीं कर रहे हैं। नैनीताल में आयोजित देशभर के फारेंसिक मेडिसिन व टॉक्सीकोलॉजी विज्ञान विशेषज्ञों की 12वीं अखिल भारतीय कांग्रेस में यह मुद्दा अनेक विशेषज्ञों की जुबान पर था। अधिकतर का कहना था कि इस विशुद्ध वैज्ञानिक तकनीक को तकरे के आधार पर गलत नहीं ठहराया जा सकता। वहीं एम्स दिल्ली की वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं डीएनए प्रयोगशाला की प्रभारी डा. अनुपमा रैना ने भी कहा तिवारी द्वारा इस मामले में दिया जा रहा तर्क बेतुका है।
उन्होंने बताया कि केवल एक निषेचित अंडे के टूटकर दो भ्रूण के रूप में विकसित होने वाले दो जुड़वा भाइयों या जुड़वां बहनों का डीएनए समान हो सकता है जबकि सामान्यतौर पर जुड़वां पैदा होने वाले भाई-बहन अथवा दो से अधिक बच्चों के पैदा होने की स्थिति में भी (उनके अलग-अलग निषेचित अंडों से विकसित होने की वजह से) डीएनए समान नहीं होते। शनिवार को नगर के सूखाताल स्थित टीआरएच में डा. रैना ने एक भेंट में बताया कि डीएनए से किसी भी व्यक्ति की सौ फीसद सही पहचान होती है। दो लोगों के डीएनए नमूने मिलने की संभावना बेहद न्यूनतम (100 बिलियन यानी 10 करोड़ मामलों में ही कभी गलती से एक) हो सकती है। बेटे के डीएनए से पितृ पक्ष और बेटी के डीएनए से मातृ पक्ष की पीढ़ियों और उनके मूल के साथ ही व्यक्ति की उम्र, लिंग आदि की जानकारी भी आसानी से पता लगाई जा सकती है। उन्होंने बताया कि देश के चर्चित प्रियदर्शिनी मट्टू और जेसिका लाल हत्याकांडों की गुत्थियां डीएनए जांचों से ही सुलझी हैं। केदारनाथ में विशेषज्ञ डीएनए नमूने लें तो बेहतर : केदारनाथ की त्रासदी में प्रदेश सरकार द्वारा अज्ञात व सड़े-गले शवों के डीएनए नमूने लिये जाने के बाबत पूछे जाने पर डा. अनुपुमा रैना का कहना है कि सामान्यत: पुलिसकर्मी डीएनए नमूने लेने में सक्षम नहीं होते। विशेषज्ञों को ही नमूने लेने चाहिए। केदारनाथ जैसे ठंडे स्थानों पर जमीन में दबे शवों के तीन-चार माह तक भी डीएनए नमूने लिए जा सकते हैं। 
यह भी पढ़ें: तिवारी के बहाने 

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

आदमखोरों की होगी डीएनए सैंपलिंग

पदचिह्नों व कैमरा ट्रैपिंग के प्रयोग असफल रहने के बाद उठाया जा रहा कदम 
नैनीताल वन प्रभाग से होगी शुरुआत, मल से लिये जाएंगे डीएनए के नमूने
नवीन जोशी, नैनीताल। अब तक आदमखोर बाघों व गुलदारों की पहचान उनके पदचिह्नों व कैमरा ट्रैपिंग के जरिए की जाती रही है, लेकिन इन प्रविधियों की असफलता और अब गांवों के बाद शहरों में भी अपनी धमक बना रहे आदमखोरों की त्रुटिहीन पहचान के लिए वन विभाग अत्याधुनिक डीएनए वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग इनकी पहचान के लिए करने जा रहा है। इसकी शुरुआत नैनीताल वन प्रभाग से होने जा रही है। इस नई तकनीक के तहत वन विभाग ग्रामीणों के सहयोग से वन्य पशुओं के मल (स्कैड) को एकत्र करेगा। मल का हैदराबाद की अत्याधुनिक सीसीएमबी (सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी) प्रयोगशाला में डीएनए परीक्षण कर डाटा रख लिया जाएगा और आगे इसका प्रयोग आदमखोरों की सही पहचान में किया जाएगा। 
वन्य जीव विशेषज्ञों के अनुसार कोई भी हिंसक वन्य जीव अपने जीवन पर संकट आने जैसी स्थितियों में ही आदमखोर होते हैं। बीते दिनों में नैनीताल जनपद के चोपड़ा, जंतवालगांव क्षेत्र में चार लोगों को आदमखोर गुलदार अपना शिकार बना चुके हैं। रामनगर के जिम काब्रेट पार्क से लगे क्षेत्रों में आदमखोर बाघों से अक्सर मानव से संघर्ष होता रहा है। दिनों-दिन ऐसी समस्याएं बढ़ने पर वन विभाग ने पहले इन हिंसक वन्य जीवों के पदचिह्नों की पहचान की तकनीक निकाली, लेकिन बेहद कठिन तकनीक होने के कारण कई बार बमुश्किल प्राप्त किए पदचिह्न किसी अन्य वन्य जीव के निकल जाते हैं और उनके इधर- उधर आने-जाने की ठीक से जानकारी नहीं मिल पाती। इससे आगे निकलकर निश्चित स्थानों पर थर्मो सेंसरयुक्त कैमरे लगाकर इनकी कैमरा ट्रैपिंग का प्रबंध किया गया, किंतु यह प्रविधि भी कुछ ही स्थानों पर कैमरे लगे होने की अपनी सीमाओं के कारण अधिक कारगर नहीं हो पा रही है। नैनीताल वन प्रभाग के डीएफओ डा. पराग मधुकर धकाते का दावा है कि इस समस्या के समाधान के लिए उन्होंने सीसीएमबी हैदराबाद जाकर अध्ययन किया है व वहां के डीएनए सैंपलिंग विशेषज्ञों ने हिंसक जीवों के आतंक से निजात दिलाने के लिए यह नया तरीका खोज निकाला है। डा. धकाते बताते हैं कि नई विधि के तहत शीघ्र ही आदमखोरों की अधिक आवक वाले क्षेत्रों में ग्रामीणों व विभागीय कर्मियों को एक दिवसीय 'कैपेसिटी बिल्डिंग प्रोग्राम' चलाकर प्रशिक्षित किया जाएगा। ग्रामीणों को विभाग प्लास्टिक के थैले उपलब्ध कराएगा, जिसमें ग्रामीण कहीं भी जानवर का मल मिलने पर थोड़ा सा एकत्र कर लेंगे। बाद में विभाग इसे सीसीएमबी हैदराबाद भेजेगा और त्रुटिहीन तरीके से उस क्षेत्र में सक्रिय हिंसक जीव की पहचान एकत्र कर ली जाएगी। कुमाऊं विवि के डीएसबी परिसर निदेशक व जंतु विज्ञानी प्रो. बीआर कौशल ने भी डीएनए सैंपलिंग के इस तरीके के बेहद प्रभावी होने की संभावना जताते हुए कहा कि मल में जानवर की लार, सलाइवा, हड्डी या पेट की आंतों के अंश होते हैं, जिनसे उस जानवर का डीएनए सैंपल प्राप्त हो जाता है।

बाघों की मौत के वैज्ञानिक अन्वेषण के निर्देश दिए

नैनीताल । नैनीताल उच्च न्यायालय ने काब्रेट पार्क में बाघों की मौत मामलों में वन अफसरों की लापरवाही को गंभीरता से लिया है। न्यायालय ने निदेशक सीटीआर को बाघों की मृत्यु का वैज्ञानिक अन्वेषण करने के निर्देश दिये हैं। खंडपीठ ने गौरी मौलखी की जनहित याचिका की सुनवाई के बाद यह निर्देश दिया है। याचिकाकर्ता का आरोप है कि काब्रेट पार्क में बाघों की मौत का सही अन्वेषण नहीं किया जा रहा है। वन अफसर जांच में बाघ संरक्षण प्राधिकरण के निर्धारित मापदंडों का सरासर उल्लंघन कर रहे हैं।

सोमवार, 11 मार्च 2013

हिमालय पर ब्लैक कार्बन का खतरा !


पहाड़ों पर अधिक होता है मौसम परिवर्तन का असर : प्रो. सिंह
नवीन जोशी नैनीताल। दुनिया के "वाटर टावर" कहे जाने वाले और दुनिया की जलवायु को प्रभावित करने वाले हिमालय पर कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण के कारण ग्लोबल वार्मिग व जलवायु परिवर्तनों के खतरे तो हैं ही, वैज्ञानिक ब्लैक कार्बन को भी हिमालय के लिए एक खतरा बता रहे हैं। खास बात यह भी है कि इसका असर गरमियों के मुकाबले सर्दियों में, दिन के मुकाबले रात्रि में और मैदान के बजाय पहाड़ पर अधिक होता है। बीरबल साहनी पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध पादप वैज्ञानिक, गढ़वाल विवि के पूर्व कुलपति, उत्तराखंड योजना आयोग के सदस्य एवं भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए) के लिए हिमालय पर जलवायु परिवर्तन का अध्ययन कर रहे प्रो. एसपी सिंह ने यह खुलासा किया है। सिंह का कहना है कि दुनिया में डेढ़ बिलियन लोग ईधन में ब्लैक कार्बन’का प्रयोग करते हैं। हिमालय पर इसका सर्वाधिक असर वनस्पतियों की प्रजातियों के अपनी से अधिक ऊंचाई की ओर माइग्रेट होने के साथ ही ग्लेशियरों के पिघलने और मानव की जीवन शैली से लेकर आजीविका तक पर गंभीर प्रभाव के रूप में दिख रहा है। धरती के गर्भ से खुदाई कर निकलने वाले डीजल जैसे पेट्रोलियम पदार्थो, कोयला व लकड़ी आदि को जलाने से ब्लैक कार्बन उत्पन्न होता है। प्रो. सिंह के अनुसार यह ब्लैक कार्बन’जलने के बाद ऊपर की ओर उठता है, और ग्रीन हाउस गैसों की भांति ही धरती की गर्मी बढ़ा देता है। बढ़ी हुई गर्मी अपने प्राकृतिक गुण के कारण मैदानों की बजाय ऊंचाई वाले स्थानों यानी पहाड़ों पर अधिक प्रभाव दिखाते हैं। प्रो. सिंह खुलासा करते हैं कि इस प्रकार मौसम परिवर्तन का असर दिल्ली या देहरादून से अधिक नैनीताल में सर्दियों में रात्रि का तापमान कई बार समान होने के रूप में दिखाई दे रहा है। इसके असर से ही ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पौधों की प्रजातियां ऊपर की ओर माइग्रेट हो रही हैं। ऐसे में सामान्य सी बात है कि पहाड़ की चोटी की प्रजातियां और ऊपर न जाने के कारण विलुप्त हो रही हैं। मानव जीवन पर भी इसका असर फसलों के उत्पादन के साथ आजीविका और जीवनशैली पर पड़ रहा है। उन्होंने खुलासा किया कि हिमाचल प्रदेश में 1995 से 2005 के बीच सेब उत्पादन में कम ऊंचाई वाले कुल्लू व शिमला क्षेत्रों का हिस्सा कम हुआ है, जबकि ऊंचाई वाले लाहौल- स्फीति का क्षेत्र बढ़ा है।

शनिवार, 2 मार्च 2013

मापी जाएगी टेक्टोनिक प्लेटों की गतिशीलता

साफ होगी भारतीय प्लेट के तिब्बती प्लेट में धंसने की गति : प्रो. पंत
नवीन जोशी, नैनीताल। अब तक भूवैज्ञानिक सामान्यतया यह कहते आए हैं कि भारतीय उप महाद्वीप करीब 50 से 55 मिमी प्रति वर्ष की दर से उत्तर की ओर गतिमान है। इस दर से भारतीय टेक्टोनिक प्लेट तिब्बती प्लेट में समा रही है, लेकिन अब पहली बार भारतीय प्लेट की गति को ही उत्तराखंड के हिमालयों में विभिन्न टेक्टोनिक हिस्सों के बीच आपसी गतिशीलता के रूप में मापा जाएगा। इस हेतु केंद्रीय भूविज्ञान मंत्रालय की एक महत्वाकांक्षी परियोजना स्वीकृत हो गई है, जिसके तहत राष्ट्रीय भूभौतिक शोध संस्थान (एनजीआरआई) हैदराबाद और आईआईटी कानपुर के वैज्ञानिक कुमाऊं विवि के भूवैज्ञानिकों और उनके द्वारा पूर्व में स्थापित भूकंपमापी उपकरणों और नई जीआईएस पण्राली से जुड़े उपकरणों की मदद से भारतीय प्लेट की वास्तविक गति का पता लगाएंगे। उल्लेखनीय है कि देश में भूकंपों और भूगर्भीय हलचलों का मुख्य कारण भारतीय प्लेट के उत्तर दिशा की ओर बढ़ते हुए तिब्बती प्लेट में धंसते जाने के कारण ही है। बताया जाता है कि करीब दो करोड़ वर्ष पूर्व भारतीय प्लेट तिब्बती प्लेट से टकराई थी, और इसी कारण उस दौर के टेथिस महासागर में इन दोनों प्लेटों की भीषण टक्कर से आज के हिमालय का जन्म हुआ था। आज भी दोनों प्लेटों के बीच यह गतिशीलता बनी हुई है, और इसकी गति करीब 50 से 55 मिमी प्रति वर्ष बताई जाती है। इधर भूविज्ञान मंत्रालय की परियोजना के तहत हिमालय के हिस्सों- लघु हिमालय से लेकर उच्च हिमालय के बीच के विभिन्न भ्रंशों के बीच इस गतिशीलता को गहनता से मापा जाएगा। कुमाऊं विवि के भूविज्ञान विभागाध्यक्ष प्रो. चारु चंद्र पंत ने बताया कि एनजीआरआई हैदराबाद के डा. विनीत गहलौत और आईआईटी कानपुर के प्रो. जावेद मलिक गंगा-यमुना के मैदानों को शिवालिक पर्वत श्रृंखला से अलग करने वाले हिमालय फ्रंटल थ्रस्ट, शिवालिक व लघु हिमालय को अलग करने वाले मेन बाउंड्री थ्रस्ट (एमबीटी), इसी तरह आगे रामगढ़ थ्रस्ट, साउथ अल्मोड़ा थ्रस्ट, नार्थ अल्मोड़ा थ्रस्ट, बेरीनाग थ्रस्ट व मध्य हिमालय से उच्च हिमालय को विभक्त करने वाले मेन सेंट्रल थ्रस्ट (एमसीटी) जैसे विभिन्न टेक्टोनिक सेगमेंट्स के बीच आपस में उत्तर दिशा की ओर गतिशीलता का गहन अध्ययन करेंगे। इस हेतु प्रदेश के पीरूमदारा, काशीपुर, कोटाबाग व नानकमत्ता व नैनीताल में जीपीएस आधारित उपकरण लगाए जाएंगे जो लंबी अवधि में इन स्थानों पर लगे उपकरणों की उनकी वर्तमान मूल स्थिति के सापेक्ष विचलन को नोट करते रहेंगे। इनके अलावा कुमाऊं विवि द्वारा कुमाऊं में भूकंप मापने के लिए मुन्स्यारी, तोली (धारचूला), नारायणनगर (डीडीहाट), धौलछीना और भराड़ीसेंण में लगाए गए उपकरणों की भी मदद ली जाएगी। 

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

कुमाऊं विवि के भौतिकी विभाग को "सेंटर फॉर एक्सीलेंस"



यूजीसी से मिलेंगे 1.37 करोड़ रुपये सेंटर फार एडवांस्ड स्टडीज बनेगा
नवीन जोशी, नैनीताल। कुमाऊं विवि के डीएसबी परिसर का भौतिकी विभाग पुन: अपने गौरव की ओर लौटता नजर आ रहा है। विभाग को विवि अनुदान आयोग यानी यूजीसी ने ˜सेंटर फॉर एक्सीलेंस" बनाने की घोषणा कर दी है। इसके तहत विभाग को अगले पांच वर्षो में 1.31 करोड़ रुपये मिलेंगे, जिससे विभाग को सीएएस यानी सेंटर फॉर एडवांस स्टडीज यानी डीएसए के रूप में विकसित किया जाएगा। इस धनराशि से विभाग में स्नातकोत्तर व शोध के स्तर को बढ़ावा देने के लिए अत्याधुनिक उपकरण खरीदे जाएंगे, साथ ही विभाग से संबंधित बड़ी संगोष्ठियां व लेक्चर भी आयोजित किए जाएंगे। उल्लेखनीय है कि कुमाऊं विवि के भौतिकी विज्ञान विभाग के प्रो. डीडी पंत को कुमाऊं विवि के प्रथम कुलपति होने का सौभाग्य मिला था। प्रो. पंत की गिनती देश के बड़े वैज्ञानिकों में होती थी। इस लिहाज से विवि के भौतिकी विभाग का गौरवमयी इतिहास रहा है। इधर, बीते माह 21-22 जनवरी को यूजीसी की बैठक में भौतिकी विभागाध्यक्ष डा. संजय पंत द्वारा किए गए विभाग के प्रस्तुतीकरण के फलस्वरूप यह उपलब्धि हासिल हुई है। प्रो. पंत ने उम्मीद जताई कि इस उपलब्धि के बाद विभाग में पढ़ाई व शोध का स्तर बढ़ेगा। बताया कि विभाग को डीआरएस व डीएसए के बाद मिली यह तीसरी अवस्था है। वहीं कुलपति प्रो. राकेश भट्नागर ने विभाग की इस उपलब्धि पर खुशी जताते हुए कहा कि इससे विभाग में काफी सारे अत्याधुनिक उपकरण प्राप्त होंगे। फलस्वरूप विद्यार्थी बेहतर सुविधाओं के साथ शोध कार्य कर पाएंगे, साथ ही उनके कार्य को देश-दुनिया में महत्व मिलेगा। उल्लेखनीय है कि इससे पूर्व विवि के भूगर्भ विज्ञान विभाग को ही यूजीसी से "सेंटर फार एक्सीलेंस" का पुरस्कार मिल पाया है।

प्रो. पंत ने अपने उपकरणों से की थी स्थापना
नैनीताल। कम ही लोग जानते होंगे कि डीएसबी परिसर की भौतिकी प्रयोगशाला देश की ऐसी पहली प्रयोगशाला है, जो प्रो. डीडी पंत ने अपने बनाए उपकरणों से 1954 से 1956 के बीच स्थापित की थी। आज भी यह प्रयोगशाला देश की श्रेष्ठ प्रयोगशालाओं में गिनी जाती है, और खासकर प्रकाश-भौतिकी (स्पेक्ट्रोस्कोपी) की प्रयोगशालाओं के मामले में उत्तर भारत की सर्वश्रेष्ठ प्रयोगशाला बताई जाती है।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

दुनिया की नजरें फिर महा प्रयोग पर


"Big Bang Theory" के इस महा प्रयोग में शामिल वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्हें हैग्ग्स पार्टिकल्स दिखे हैं, पर इस खबर की अभी भी पुष्टि होनी बाकी है...हैग्ग्स पार्टिकल्स को श्रृष्टि में जीवन के जनक या ईश्वर के कण तक कहा जा रहा है...वैसे इनका नाम हैग्ग्स-बोसोन कण है, जिसमें बोसोन भारतीय वैज्ञानिक एससी बोस के नाम पर है....यदि यह कण न दिखे तो विज्ञान की कई अवधारणाओं की सत्यता खतरे में पड़ जायेगी.....