पहाड़ों पर अधिक होता है मौसम परिवर्तन का असर : प्रो. सिंह
नवीन जोशी नैनीताल। दुनिया के "वाटर टावर" कहे जाने वाले और दुनिया की जलवायु को प्रभावित करने वाले हिमालय पर कार्बन डाई आक्साइड, मीथेन, ग्रीन हाउस गैसों तथा प्रदूषण के कारण ग्लोबल वार्मिग व जलवायु परिवर्तनों के खतरे तो हैं ही, वैज्ञानिक ब्लैक कार्बन को भी हिमालय के लिए एक खतरा बता रहे हैं। खास बात यह भी है कि इसका असर गरमियों के मुकाबले सर्दियों में, दिन के मुकाबले रात्रि में और मैदान के बजाय पहाड़ पर अधिक होता है। बीरबल साहनी पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध पादप वैज्ञानिक, गढ़वाल विवि के पूर्व कुलपति, उत्तराखंड योजना आयोग के सदस्य एवं भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (आईएनएसए) के लिए हिमालय पर जलवायु परिवर्तन का अध्ययन कर रहे प्रो. एसपी सिंह ने यह खुलासा किया है। सिंह का कहना है कि दुनिया में डेढ़ बिलियन लोग ईधन में ब्लैक कार्बन’का प्रयोग करते हैं। हिमालय पर इसका सर्वाधिक असर वनस्पतियों की प्रजातियों के अपनी से अधिक ऊंचाई की ओर माइग्रेट होने के साथ ही ग्लेशियरों के पिघलने और मानव की जीवन शैली से लेकर आजीविका तक पर गंभीर प्रभाव के रूप में दिख रहा है। धरती के गर्भ से खुदाई कर निकलने वाले डीजल जैसे पेट्रोलियम पदार्थो, कोयला व लकड़ी आदि को जलाने से ब्लैक कार्बन उत्पन्न होता है। प्रो. सिंह के अनुसार यह ब्लैक कार्बन’जलने के बाद ऊपर की ओर उठता है, और ग्रीन हाउस गैसों की भांति ही धरती की गर्मी बढ़ा देता है। बढ़ी हुई गर्मी अपने प्राकृतिक गुण के कारण मैदानों की बजाय ऊंचाई वाले स्थानों यानी पहाड़ों पर अधिक प्रभाव दिखाते हैं। प्रो. सिंह खुलासा करते हैं कि इस प्रकार मौसम परिवर्तन का असर दिल्ली या देहरादून से अधिक नैनीताल में सर्दियों में रात्रि का तापमान कई बार समान होने के रूप में दिखाई दे रहा है। इसके असर से ही ग्लेशियर पिघल रहे हैं और पौधों की प्रजातियां ऊपर की ओर माइग्रेट हो रही हैं। ऐसे में सामान्य सी बात है कि पहाड़ की चोटी की प्रजातियां और ऊपर न जाने के कारण विलुप्त हो रही हैं। मानव जीवन पर भी इसका असर फसलों के उत्पादन के साथ आजीविका और जीवनशैली पर पड़ रहा है। उन्होंने खुलासा किया कि हिमाचल प्रदेश में 1995 से 2005 के बीच सेब उत्पादन में कम ऊंचाई वाले कुल्लू व शिमला क्षेत्रों का हिस्सा कम हुआ है, जबकि ऊंचाई वाले लाहौल- स्फीति का क्षेत्र बढ़ा है।
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