बुधवार, 20 नवंबर 2013

मंत्रियों ने अपनी सीटें सामान्य करा लीं, बाकी पर आरक्षण

पंचायत चुनावों के लिए आरक्षण का खाका तैयार 
नैनीताल (एसएनबी)। जनपद में आसन्न पंचायत चुनावों के लिए ब्लाक प्रमुख, जिला पंचायत सदस्य, क्षेत्र पंचायत सदस्य एवं ग्राम पंचायत की सीटों के लिए आरक्षण की घोषणा हो गई है। बुधवार को डीएम के स्तर से आरक्षण की स्थिति साफ हो गई है। इसके तहत जनपद की सर्वाधिक महत्वपूर्ण हल्द्वानी, बेतालघाट और रामनगर के ब्लॉक प्रमुखों की सीटें अनारक्षित रखी गई हैं। उल्लेखनीय है कि यह तीनों क्षेत्र राज्य सरकार के तीन सर्वाधिक प्रभावी काबीना मंत्रियों के परंपरागत क्षेत्र हैं। हल्द्वानी काबीना मंत्री डा. इंदिरा हृदयेश, बेतालघाट अब परोक्ष तौर पर यशपाल आर्या एवं रामनगर अमृता रावत के गृह क्षेत्र हैं। वहीं कोटाबाग में अनुसूचित जाति की महिला, ओखलकांडा में अनुसूचित जाति के पुरुष या महिला तथा धारी, रामगढ़ व भीमताल महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। 
साफ है कि इन सभी ब्लाकों में मौजूदा स्थिति के हिसाब से आरक्षण के बदलाव से राजनीतिक रूप से उलटफेर कर दिया गया है, हालांकि अभी इन पर आपत्तियां भी दी जा सकती हैं। इसी तरह जिला पंचायत क्षेत्रों के आरक्षण की बात करें तो जिले की 26 सीटों में से तीन सीटें अनुसूचित जाति की महिलाओं, तीन अनुसूचित जाति, एक पिछड़ी जाति, नौ महिलाओं के लिए आरक्षित तथा 10 अनारक्षित छोड़ी गई हैं। चोरगलिया आमखेड़ा, ककोड़ व पत्तापानी अनु. जाति की महिलाओं, आंवलाकोट, ओखलकांडा मल्ला व पूरनपुर अनु. जाति, सिमलखां पिछड़ी जाति, सूपी, जंगलियागांव, दाड़िमा, दीनी तल्ली, सरना, चंद्रनगर, बमेठा बंगर खीमा, बिठौरिया नं. 1 व अमृतपुर महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं। वहीं पनियाली, ज्योलीकोट, बड़ोन, कमोला, ढोलीगांव, हरतपा, घंघरेटी, छोई, गहना व मेहरागांव अनारक्षित रखी गई हैं। इसी प्रकार क्षेत्र पंचायत एवं ग्राम पंचायत की सीटों के लिए भी आरक्षणों की भारी भरकम सूची जारी कर दी गई है, और इसे जिला व ब्लॉक मुख्यालयों पर रखवा दिया गया है।

सोमवार, 18 नवंबर 2013

स्थापना दिवस पर नैनीताल को कुदरत से मिला ‘विंटर लाइन’ का अनूठा तोहफा

नवीन जोशी, नैनीताल। इधर सरोवरनगरी वासी सोमवार को अपनी प्रिय नगरी का 172वां स्थापना दिवस मना रहे थे। उधर कुदरत ‘प्रकृति का स्वर्ग’ कही जाने वाली नगरी को चुपके से ऐसा तोहफा दे गई, जिसे प्रकृति प्रेमी ‘विंटर लाइन’ कहते हैं। कुदरत की इस अनूठी नेमत ‘विंटर लाइन’ के बारे में कहा जाता है कि यह दुनिया में केवल स्विटजरलैंड की बॉन वैली और मसूरी के लाल टिब्बा से ही नजर आती है। नैनीताल से भी यह वर्षो से नजर आती है लेकिन अब तक इसे नगर व प्रदेश के पर्यटन कैलेंडर और पर्यटन व्यवसायियों से मान्यता नहीं मिल पाई है। प्रकृति प्रेमियों के अनुसार ‘विंटर लाइन’ की स्थिति सर्दियों में मैदानों में कोहरा छाने और ऊपर से सूर्य की रोशनी पड़ने के परिणामस्वरूप शाम ढलते सैकड़ों किमी लंबी सुर्ख लाल व गुलाबी रंग की रेखा के रूप में नजर आती है। नैनीताल में इसका सबसे शानदार नजारा हनुमानगढ़ी क्षेत्र से लिया जा सकता है लेकिन नगर के चिड़ियाघर क्षेत्र से भी इसे देखा जा सकता है। सुबह सूर्योदय से पूर्व भी इसे हल्के स्वरूप में देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि हनुमानगढ़ी से सूर्यास्त के भी अनूठे नजारे देखने को मिलते हैं। प्रकृति प्रेमी बताते हैं कि इस दौरान डूबते हुए सूर्य में कभी घड़ा तो कभी सुराही जैसे अनेक आकार प्रतिबिंबित होते हैं। पूर्व में इन्हें देखने के लिये यहां बकायदा व्यू प्वाइंट स्थापित थे, जो बीते वर्षो में हटा दिये गये हैं।

नेपाली फिल्म ‘विरासत’ में भी दिखती है नैनीताल की विंटर लाइन

नैनीताल। देश-प्रदेश के पर्यटन विभाग और पर्यटन व्यवसायी भले विंटरलाइन की खूबसूरती का नगर के पर्यटन उद्योग को बढ़ाने में उपयोग न कर रहे हों लेकिन गत वर्ष नगर में इन्हीं दिनों फिल्माई गई नेपाली फिल्मों के निर्देशक गोविंद गौतम की नायक समर थापा व नायिका सोनिया खड़का अभिनीत फिल्म विरासत में नैनीताल की विंटरलाइन को फिल्माया गया है। इस फिल्म के एक गीत में नायकनाियका के बीच हनुमानगढ़ी के पास विंटर लाइन को दिखाते हुए प्रणय दृश्य फिल्माए गए हैं।

रविवार, 17 नवंबर 2013

यूं ही नहीं, तत्कालीन विश्व राजनीति की रणनीति के तहत अंग्रेजों ने बसासा था नैनीताल


रूस को भारत आने से रोकने और पहले स्वतंत्रता आंदोलन का बिगुल फूंक चुके रुहेलों से बचने के लिए अंग्रेजों ने बसाया था नैनीताल

नैनीताल के प्राकृतिक सौंदर्य ने भी खूब लुभाया था अंग्रेजों को

नवीन जोशी, नैनीताल। ऐसा माना जाता है कि 18 नवम्बर 1841 को एक अंग्रेज शराब व्यवसायी पीटर बैरन नैनीताल आया और उसने इस स्थान के थोकदार नर सिंह को नाव से झील के बीच ले जाकर डुबो देने की धमकी दी और शहर को कंपनीबहादुर के नाम करवा दिया था। यह अनायास नहीं था कि एक अंग्रेज इस स्थान पर आया और उसकी खूबसूरती पर फिदा होने के बाद इस शहर को ‘छोटी विलायत’ के रूप में बसाया। साथ ही शहर को अब तक सुरक्षित रखे नाले और अब भी मौजूद राजभवन, कलेक्ट्रेट, कमिश्नरी, सचिवालय (वर्तमान उत्तराखंड हाईकोर्ट) तथा सेंट जॉन्स, मैथोडिस्ट, सेंट निकोलस व लेक र्चच सहित अनेकों मजबूत व खूबसूरत इमारतों के तोहफे भी दिए। सर्वविदित है कि नैनीताल अनादिकाल काल से त्रिऋषि सरोवर के रूप में अस्तित्व में रहा स्थान है। अंग्रेजों के यहां आने से पूर्व यह स्थान थोकदार नर सिंह की मिल्कियत थी। तब निचले क्षेत्रों से ग्रामीण इस स्थान को बेहद पवित्र मानते थे, लिहाजा सूर्य की पौ फटने के बाद ही यहां आने और शाम को सूर्यास्त से पहले यहां से लौट जाने की धार्मिक मान्यता थी। कहते हैं 1815 से 1830 के बीच कुमाऊं के दूसरे कमिश्नर रहे जीडब्ल्यू ट्रेल यहां से होकर ही अल्मोड़ा के लिए गुजरे और उनके मन में भी इस शहर की खूबसूरत छवि बैठ गई, लेकिन उन्होंने इस स्थान की धार्मिक मान्यताओं की मर्यादा का सम्मान रखा। दिसम्बर 1839 में पीटर बैरन यहां आया और इसके सम्मोहन से बच न सका। व्यवसायी होने की वजह से उसके भीतर इस स्थान को अपना बनाने और अंग्रेजी उपनिवेश बनाने की हसरत भी जागी और 18 नवम्बर 1841 को वह पूरी तैयारी के साथ यहां आया। वह औपनिवेशिक वैश्विकवाद व साम्राज्यवाद का दौर था। नए उपनिवेशों की तलाश व वहां साम्राज्य फैलाने के लिए फ्रांस, इंग्लैंड व पुर्तगाल जैसे यूरोपीय देश समुद्री मार्ग से भारत आ चुके थे, जबकि रूस स्वयं को इस दौड़ में पीछे महसूस कर रहा था। कारण, उसकी उत्तरी समुद्री सीमा में स्थित वाल्टिक सागर व उत्तरी महासागर सर्दियों में जम जाते थे। तब स्वेज नहर भी नहीं थी। ऐसे में उसने काला सागर या भूमध्य सागर के रास्ते भारत आने के प्रयास किये, जिसका फ्रांस व तुर्की ने विरोध किया। इस कारण 1854 से 1856 तक दोनों खेमों के बीच क्रोमिया का विश्व प्रसिद्ध युद्ध हुआ। इस युद्ध में रूस पराजित हुआ, जिसके फलस्वरूप 1856 में हुई पेरिस की संधि में यूरोपीय देशों ने रूस पर काला सागर व भूमध्य सागर की ओर से सामरिक विस्तार न करने का प्रतिबंध लगा दिया। ऐसे में रूस के भारत आने के अन्य मार्ग बंद हो गऐ थे और वह केवल तिब्बत की ओर के मागरे से ही भारत आ सकता था। तिब्बत से उत्तराखंड के लिपुलेख, नीति, माणा व जौहार घाटी के पहाड़ी दरे से आने के मार्ग बहुत पहले से प्रचलित थे। ऐसे में अंग्रेज रूस को यहां आने से रोकने के लिए पर्वतीय क्षेत्र में अपनी सुरक्षित बस्ती बसाना चाहते थे। दूसरी ओर भारत में पहले स्वाधीनता संग्राम की शुरूआत हो रही थी। मैदानों में खासकर रुहेले सरदार अंग्रेजों के दुश्मन बने हुऐ थे। मेरठ गदर का गढ़ था ही। ऐसे में मैदानों के सबसे करीब और कठिन दरे के संकरे मार्ग से आगे का बेहद सुंदर स्थान नैनीताल ही नजर आया, जहां वह अपने परिवारों के साथ अपने घर की तरह सुरक्षित रह सकते थे। ऐसा हुआ भी। हल्द्वानी में अंग्रेजों व रुहेलों के बीच संघर्ष हुआ, जिसके खिलाफ तत्कालीन कमिश्नर रैमजे नैनीताल से रणनीति बनाते हुए हल्द्वानी में हुऐ संघर्ष में 100 से अधिक रुहेले सरदारों को मार गिराने में सफल रहे। रुहेले दर्रे पार कर नैनीताल नहीं पहुंच पाये और यहां अंग्रेजों के परिवार सुरक्षित रहे।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ में कत्ती टपकी, काँयी चटैक छन और काँयीं फचैक: डॉ. प्रभा


'नवेंदु'क ‘उघड़ी आखोंक स्वींण’ कवितानै्कि पुन्तुरि नै पुर गढ़व छ, जमैं भाव और विचारना्क मोत्यूंल गछींण कतुकै किस्मैकि रंग-बिरंग मा्व भरी छन। यौ कविता संग्रह में समसामयिक विषयन पर कटाक्षै नै प्रतीक और बिम्ब लै छन। कत्ती-कत्ती दर्शन लै देखीं जाँ। उनरि ‘लौ’, ‘पत्त नै’, ‘रींड़’, ‘असल दगड़ू’ कविता यैक भल उदाहरण छन। जाँ एक तरप नवेंदु ज्यूल ‘दुंङ’, ‘तिनाड़’ जा्स प्राकृतिक उपादानूँ कैं कविताक विषय बणै राखौ, वायीं दुहरि उज्याणि ‘हू आर यू’, ‘कुन्ब’, ‘किलै’, ‘तरक्की’, ‘हरै गो पिरमू’, ‘भ्यार द्यो ला्ग रौ हो’, ‘मैंस अर जनावर, ‘अगर’, ‘परदेस जै बेर’ जसि कवितान में मैंसना्क मनोविज्ञान लै उघाड राखौ। एतुकै नै, एक पढ़ी-लेखी दिमागदार मैंसा्क चा्रि, उ लै समानताक लिजी महिला सशक्तिकरण के जरूरी मा्ननीं। तबै त उँ ‘तु पलटिये जरूर’ कैबेर, च्येलि-स्यैंणिया्ँक मन बै गुण्ड, लोफरनौ्क डर निकाउनै्कि बात कूँनीं और उनुकैं अघिल बढ़नौ्क बा्ट बतैबेर उनुधौं आ्पण तराण पछ्याणन हूँ कूँनीं- ‘‘तु जे लै पैरि/ला्गली बा्ट/घर बै/घर बै इ/ला्गि जा्ल गुण्ड/त्या्र पछिल....बस त्या्र पलटण तलक/और मैकैं फर विश्वास छु/तब त्वे में देख्येलि/उनुकैं झाँसिकि रा्णि/का्इ माता।’’
यमैं क्वे शक न्हैती कि प्रकृति होओ या हमरि जिन्दगि, रिश्त-ना्त होओ या खा्ण-पिण, संतुलन सब जा्ग जरूरी हूँ। जब-जब घर भितेर या भ्यार संतुलन बिगडूँ तब-तब हमौ्र पर्यावरण खराब हूँ, घर-परवार और समाजै्कि व्यवस्था लै गजबजी जैं। ‘जड़ उपा्ड़’ में उ कूँनीं-

‘‘जब बिगड़ि जाँ/मणीं म्यस/पाँणि लै/डाव बणिं/टोणि द्यूं/डा्वन कैं/खपो्रि/लगै द्यूँ/छा्ल घाम/घाम सुकै द्यू/पात पतेल कि/हुत्तै बोट कैं।’’
यौ साचि छ कि संसार कैं देखणौ्क सबनौ्क आ्पण-आ्पण ढंङ हूँ, पर ज्यूँन रूँणा्क लिजी उमींदैकि सबुन कैं जरूरत हैं। अगर मैंस कैं ‘उमींद’ नि होओ, त उ आपणि भितेर लिई साँस कैं भ्यार निकाउँण में लै डरन। उ भलीभाँ जा्णूँ कि अन्यारा्क बाद रोज उज्याव हूँ और जुन्या्लि राता्क बाद अमूँस जरूर ऐं, तबै त उकैं आ्स ला्ग रै अमूँसा्क बाद ज्यूँनिकि-
‘रङिल पिछौड़ में/आँचवा मुणि छो्पि/रङिल करि दये्लि/फिरि आङ ला्गि/अङवाल भरि/उज्या्यि करि दये्लि-ज्यूँनि।’’
जब लै कैकै मनम पीड़ हैं, त वीक आँखन बै आँसु च्वी जानीं और जब कभैं उ जसिक-तसिक आ्पण आँसुन कैं पि लै ल्यूँ, तब लै उ मनैमन डाड़ हालनै रूं। जसिक द्यौक पाणि धारती कैं नवै-ध्वेबेर वीक धाूल-मा्ट सब साप करि द्यूँ और उ हरिपट्ट देखींण फैजै, अगास में ला्गी बादव जब बरसि जानी त उ लै हल्क हैबेर इत्थै-उत्थै उड़ि जा्नीं। उसिकै जब मना्क अगास में उदेखा्क बादव ला्ग जानीं, तब आँख बै आँसु बरसिबेर वीक मन कै कल्ल पाड़नीं। पर, नवेंदु ज्युँक बिचार एहै अलग छन, तबै त उँ ‘डाड़ मारणैल’ कविता में कूँनी-
‘कि हुं/डाड मारणैल/जि छु हुणीं/उ त ह्वलै/के कम जै कि ह्वल, और लै सकर है सकूँ/फिर डाड़ किलै/फिर आँस का्स/फिर लै/जि ऊँणई आँ्स त/समा्इबेर धारि ल्हिओ/कबखतै-कत्ती/हँसि आ्लि अत्ती/काम आ्ल।’’
‘आँखर’ उनरि एक प्रयोगात्मक कविता छ। यौ छ, कम आँखरन में ज्यादे कूँणी। नान्तिनन कै भल लागणी, नान्छना्कि नर लगूणा और ‘घुघूती, बासूतिकि......फा्म दिलूणी जसि-
‘‘भै जा भि मै/के खै ले/यौ दै खा/ए-द्वि ‘पु’ लै खा/ ‘छाँ’ पि/‘घ्यू’ लै खा/धौकै खा।’’
‘आदिम’ कै पढ़िबेर उर्दू गजल कै पढ़नि जसि मिठी-मिठि लागै-
‘‘उँच महल में आदिम, कतुक ना्न जस ला्गू/कतुक लै लम्ब हो भलै, बा्न जस लागूँ।’’
‘काँ है रै दौड़’ में उनूंल आजा्क समाजैकि भभरियोयिक जो का्थ लेख राखी उकैं पढ़बेर लागूँ मैंस कैं भगवानै्ल एतुक दिमाग दि रा्खौ, पै लै उ संसारा्क भूड़पना ओझी किलै रौ, जो सिद्द-साद्द बाट छन उनूमें किलै नि हिटन? जब सबूकै संसार गाड़ाक वार बै पारै जाण छ, तब मैसूंल यौ भजाभाज किलै लगै रा्खी? अगर मैस दुहा्रनै्कि टाङ खैचण है भल आपुकै समावण में ला्ग जाओ, त वीक मनौ्क आधू असन्तोष त उसिकै दूर है जा्ल-
‘‘सब भाजणई-पड़ि रै भजाभाज/निकइ रौ गाज/करण में छन सिंटोई-सिंगार/अगी रौ भितेर भ्यार।’’
उसिक त टो्लि-बोलि मारणीं मैंस कैकैं भल नि ला्गन, पै साहित्य में सिद्दी बात है भलि उ बात ला्गैं जो घुमै-फिरैबेर कई जैं। सिद्दी बात उतुक असर नि करनि, जतुक बो्लिकि मार करैं। सैद येकै वील साहित्यकारन कैं व्यंग्यात्मक शैली में लेखण अत्ती भल ला्गूँ। यौ मामुल में ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ में कत्ती टपकी, काँयी चटैक छन और काँयीं फचैक। ‘ब्रह्मा ज्यूकि चिन्त’, ‘तु कूंछी’, ‘को छा हम’, ‘अच्याना्क मैंस’, ‘झन पिए शराब’, ‘न मर गुण्ड’, ‘फरक’, ‘खबरदार’, ‘पनर अगस्ता्क दिन’ जसि कविता, का्नना्क बीच में खिली फूलनै्कि जसि औरी भलि देखींनी-
‘‘आज छि छुट्टी/करौ मैंल ऐराम/सेइ रयूँ दिनमान भरि/लगा टीबी/क्वे पिक्चर नि उणै्छी/बजा रेडू/कैं फिल्मी गीत न उणाछी/सब ठौर उणाछी भाषण/द्यखण पणीं-सुणन पणीं/सुण्यौ, भारत माताकि जैक ना्र/करीब सात म्हैंण पछां/पैल फ्या्र/छब्बीस जनवरिक पछां।’’
ज्यून रूँणा्क लिजी जतुक जरूरी हूँ आङ में खून, उतुकै जरूरी छ पा्णि लै। दुणियाँक लिजी जतुक जरूरी छ दिन उतुकै रात लै, पराण्कि लिजी जतुक जरूरी हूँ ऐराम, उहै नै कम नै ज्यादे, जरूरी हूँ काम लै। मैंसै्कि ज्यूँनि में पिरेम भावैकि उई जा्ग छ, जो रेगिस्तान में पा्णिकि और ह्यू में घामै्कि। इज-बा्ब, भै-बै्णि, दगडू-सुवा सबूक परेम आ्पण-आ्पण जा्ग उतुकै जरूरी छ, जतुक साग में लूँण और खीर में चिनि। जब मैंस ज्वान हुण ला्गूँ, वीक नान्छना्क स्वींण लै बुरूँसा्क फूलूँक चा्रि खितखिताट करण फै जा्नीं। नान्छना आ्मैकि रा्ज-रा्णिक का्थै्कि रा्जै्कि च्येलि, ‘किरन परि’ बणि वीक मनम कुतका्इ लगूँण ला्गैं और उ करण ला्गूँ ‘स्वींणौ्क क्वीड़’
जापानिक ‘हाइकू’ हिन्दी में'इ नै, अब कुमाउँनी में लै खूब देखींण-सुणींण फै ग्यीं। अगर म्ये्रि जानकारि सई छ, त कुमाउँनी में हाइकू लेखणै्कि शुरूआत सबुहै पैली ज्ञान पंत ज्यूल अस्सीक दशक में करि हा्ल छी, पछा उनरि किताब ‘कणिक’ नामैल छापिणीं। हाइकू लेखणौ्क प्रयोग नवेंदु ज्यूल लै करि रा्खौ-
‘‘बंण बै बाग/शहर बै मैस्यिोलि/हरै ग्ये आज।’’
आखिर में, मैं नवेंदु कैं उनरि रचनात्मक समाजसेवा क लिजी बधाई दिनूँ। ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ उना्र देखी स्यूँणा कैं पुर करैलि, यौ संग्रह में नवीन जोशि ज्यूल आ्पणि कवितान कैं एकबट्या रा्खौ। मकैं पुर विश्वास छ, उघड़ी आखूँक स्वींण पढ़नियाँकैं नवेंदुकि ज्यूनि, जुन्या्लि रात जसि अङाव हा्लड़ी ला्गलि।
 डॉ. प्रभा पंत,  
एसो. प्रोफेसर, हिन्दी, एम.बी.रा.स्ना.महाविद्यालय,  हल्द्वानी
(कविता संग्रह ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ की भूमिका से उद्धृत)