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सोमवार, 12 जनवरी 2015

अपनी बनाई दूरबीनों से देख सकेंगे चांद-सितारे

नेहरू तारामंडल इलाहाबाद में चल रही है 12 दिवसीय कार्यशाला 
कार्यशाला में दूरबीनों के लेंसों पर एल्युमिनियम की परत चढ़ाने का कार्य एरीज में
नैनीताल (एसएनबी)। केंद्र सरकार की जनता को खगोल विज्ञान से जोड़ने के उद्देश्य से चल रही एक योजना के तहत मूलत: नेहरू तारामंडल इलाहाबाद में बीती पांच से 16 जनवरी तक के लिए एक 12 दिवसीय कार्यशाला चल रही है, जिसमें देशभर के 40 चयनित लोगों को खुद के लिए पांच इंच व्यास की 25 दूरबीनें बनाने का मौका दिया जा रहा है। एक मीटर फोकस दूरी वाली इन ‘न्यूटोनियम डोप्सोनियन’ प्रकार की दूरबीनों से सूर्य, चंद्रमा के अलावा मंगल, बुध, बृहस्पति व उसके चार उपग्रह, शुक्र एवं उसके छह उपग्रहों, शनि तथा उसके उपग्रह टाइटन व अरुण (यूरेनस) आदि ग्रहों और उनके उपग्रहों को देखा जा सकेगा। कार्यशाला के तहत सभी दूरबीनों के लेंसों पर उनकी परावर्तन क्षमता बढ़ाने के लिए एल्युमिनियम की परत चढ़ाने (एल्युमिनियम कोटिंग) का कार्य एरीज में हो रहा है। 

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सोमवार (12.01.2015) को एरीज में कार्यशाला से जुड़े एवं खुद की भी दूरबीन तैयार कर रहे एरीज के विज्ञान केंद्र तथा पब्लिक आउटरीच केंद्र के समन्वयक डा. आरके यादव की अगुआई में आयूका पुणो, नेहरू प्लेनिटोरियम इलाहाबाद व एरीज के लोगों व विशेषज्ञों ने लेंसों पर एल्युमिनियम की परत चढ़ाने का कार्य प्रारंभ किया। यादव ने बताया कि इससे पूर्व प्रतिभागियों ने इलाहाबाद में पांच इंच व्यास के 19 मिमी मोटे लेंसों को सिलिकॉन कार्बाइड से घिसकर उनके केंद्र पर एक मिमी की गहराई युक्त अवतल लेंस के रूप में तैयार किया है। दूरबीनें 18वीं सदी में महान वैज्ञानिक आइजेक न्यूटन द्वारा प्रयोग की गई तकनीक पर बनाई जा रही हैं, इसलिए उन्हीं के नाम पर दूरबीन का नाम रखा गया है। आगे लेंसों को वापस इलाहाबाद ले जाकर वहां इन्हें एक खोखली नली में एक और 12 मिमी मोटे लेंस के साथ समायोजित कर दूरबीन का स्वरूप दिया जाएगा। कार्यशाला में केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रोद्योगिकी मंत्रालय का विज्ञान प्रसार संस्थान नोएडा पांच लाख रुपये खर्च कर रहा है। डा. विमान मेंधी, तुषार पुरोहित, उमंग गुप्ता, बीसी पंत, अशोक सिंह, प्रेम कुमार, हरीश आर्या, राजदीप सिंह व बाबू राम आदि इस कार्य में जुटे हुए थे। लेंस से कभी न देखें सूर्य को नैनीताल। आयूका पुणो से आये लेंस निर्माण विशेषज्ञ तुषार पुरोहित ने कहा कि सूर्य को किसी भी प्रकार की, यहां तक कि छोटी बच्चों की दूरबीनों से भी नहीं देखना चाहिए। इससे आंखों की रोशनी जा सकती है। सामान्य कैमरों से सूर्य की फोटो भी नहीं खींचनी चाहिए। यदि बहुत जरूरी हो तो लेंसों पर सूर्य से बचाव की फिल्म लगाकर ही सूर्य को देखा जा सकता है। 

बुधवार, 3 जुलाई 2013

देवभूमि को आपदा से बचाएगा नैनीताल, एसटी और डोपलर रडार लगेंगे



  • जिला प्रशासन ने डॉप्लर रडार लगाने को स्नोव्यू में तलाशी जमीन
  • एरीज भी अपने यहां लगाने को तैयार
  • एरीज में पहले ही एसटी रडार स्थापित

नवीन जोशी नैनीताल। यहां एरीज में हवाओं की निगहबानी करने वाली एसटी रडार स्थापित हो चुकी है और इसके जल्द कार्य शुरू करने की उम्मीद की जा रही है, वहीं वर्ष 2004 से लंबित डॉप्लर रडार लगाने के लिए जिला प्रशासन ने नगर के स्नोव्यू में लोनिवि की छह हजार वर्ग फीट भूमि इस हेतु चिह्नित कर ली है, जबकि एरीज के अधिकारियों ने अपने यहां इसे लगाने पर भी हामी भरी है। मौसम की सटीक जानकारी के लिए एसटी और डॉप्लर रडार की भूमिका महत्वपूर्ण है। एसटी रडार जहां वायुमंडल की करीब 20 से 25 मीटर की ऊंचाई की दिशा में हवाओं की गति पर और डॉप्लर रडार 360 डिग्री के कोण पर घूमते हुए 200 किमी की परिधि में वायुमंडल में मौजूद आर्द्रता-नमी पर नजर रखती है। इन दोनों प्रकार की रडारों के समन्वय से मौसम विभाग आने वाले मौसम की सटीक भविष्यवाणी कर पाता है।
वर्ष 2004-05 से मसूरी और नैनीताल में करीब 10 करोड़ रुपए लागत के डॉप्लर रडार लगाने की योजना बनी थी, लेकिन बाद में मामला ठंडे बस्ते में चला गया। इस बार की भीषण आपदा से सबक लेते हुए डीएम अरविंद सिंह ह्यांकी ने प्रयास किए हैं। एक ओर स्थानीय आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान (एरीज) से डॉप्लर रडार लगाने के बाबत वार्ता की। एरीज के स्थानीय अधिकारियों ने इसे अपने परिसर में लगाने पर उच्च प्रबंधन से आसानी से स्वीकृति मिल जाने की बात कही है। इसके साथ ही स्नोव्यू क्षेत्र में लोनिवि की छह हजार वर्ग फीट भूमि की पहचान कर शासन को जानकारी दे दी गई है, ताकि एरीज और स्नोव्यू के दोनों स्थानों का परीक्षण कर लिया जाए। डीएम ने कहा कि परीक्षण में जो भी स्थान उपयुक्त पाया जाएगा, उसका तत्काल प्रस्ताव बनाकर शासन को भेज दिया जाएगा। इधर राज्य के मौसम विभाग के निदेशक आनंद शर्मा ने मौसम की निगरानी के लिए डॉप्लर रडार को सबसे प्रभावी बताया। बताया कि 2004-05 से इसका प्रस्ताव लंबित था। राज्य सरकार स्थान उपलब्ध कराए तो केंद्रीय मौसम विभाग डॉप्लर रडार स्थापित करेगा।
एसटी रडार से 24 घंटे पहले तक हो सकेगी सटीक भविष्यवाणी
नैनीताल। एरीज में देश की सबसे बड़ी 206 मेगा हर्ट्ज क्षमता का एसटी रडार शीघ्र कार्य शुरू कर देगा। इससे पहाड़ी राज्यों में बादल फटने, तूफान आने सहित वायुयानों के बाबत करीब 24 घंटे पूर्व तक सटीक भविष्यवाणी हो सकेगी। एरीज के वायुमंडल वैज्ञानिक व एसटी रडार विोषज्ञ डा. नरेंद्र सिंह ने बताया कि यह रडार अगस्त अंत तक कार्य करना प्रारंभ कर देंगे। यह रडार वायुमंडल में चलने वाली हवाओं के 150 किमी प्रति घंटा की गति तक जाने की संभावना का दो दिन पहले ही अंदाजा लगाने की क्षमता रखती है। साथ ही यह धरती की सतह से 25 किमी ऊपर वायुमंडल की वज्रपात, बिजली की गर्जना, वायुयानों के चलने वाली हवाओं के रुख का अनुमान भी 24 घंटे पूर्व लगा सकता है।
धाकुड़ी, बदियाकोट व मदकोट में स्थापित हुए वायरलेस स्टेशन
नैनीताल। पुलिस ने कुमाऊं मंडल में आपदा के दौरान दूरस्थ क्षेत्रों से सूचनाओं के आदान-प्रदान के मद्देनजर तीन अस्थायी वायरलेस स्टेशनों की स्थापना की है। अपर राज्य रेडियो अधिकारी जीएस पांडे ने बताया कि बागेश्वर जिले के दूरस्थ पिंडारी ट्रेकिंग रूट पर धाकुड़ी एवं बदियाकोट में तथा पिथौरागढ़ जिले के मदकोट में वायरलेस स्टेशन स्थापित किये गए हैं। इन स्टेशनों पर वायरलेस ऑपरेटरों की तैनाती भी की गई है। कोई भी व्यक्ति यहां आकर आपदा से संबंधित सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकता है। कैलास मानसरोवर यात्रा मार्ग पर पहले ही पुलिस की ऐसी व्यवस्था गुंजी तक मौजूद है। इसके अलावा तीन सेटेलाइट फोन भी दूरस्थ क्षेत्रों में उपलब्ध कराए गए हैं।

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

नैनीताल में बनेगा दुनिया की स्वप्न-'टीएमटी' का आधार

अमेरिका के हवाई द्वीप में स्थापित होनी है दुनिया की सबसे बड़ी 30 मीटर व्यास की दूरबीन
इसका आधार-'मिरर सेगमेंट सपोर्टिंग एसेंबली' बनेगी एरीज में
भारत एक हजार करोड़ रुपए की अतिमत्वाकांक्षी परियोजना में एक फीसद का है भागीदार
एरीज में 'टीएमटी' की बनने वाली 'मिरर सेगमेंट सपोर्टिंग एसेंबली'

नवीन जोशी, नैनीताल। वर्ष 2001 व 2003 में पहली बार दुनिया भर के खगोल विज्ञानियों द्वारा देखा गया 30 मीटर व्यास की आप्टिकल दूरबीन ‘थर्टी मीटर टेलीस्कोप यानी टीएमटी’ का ख्वाब अब ताबीर होने की राह पर चल पड़ा है। नैनीताल स्थित एरीज का सौभाग्य ही कहेंगे कि दुनिया की इस स्वप्न सरीखी दूरबीन का आधार यानी सेगमेंट सर्पोटिंग एसेंबली नाम के करीब 60 हिस्से यहाँ बनाए जाएंगे। आधार के इन हिस्सों पर ही इस विशालकाय 56 मीटर ऊंची व करीब 10 टन भार की दूरबीन का वजन इसे पूरे आकाश में देखने योग्य घुमाने के साथ उसे सहने का गुरुत्तर दायित्व होगा। इन महत्वपूर्ण हिस्सों के निर्माण की तैयारी के क्रम में निर्माता कंपनियों के चयन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। 
गौरतलब है कि ‘टीएमटी’ की महांयोजना करीब 1.3 बिलियन डॉलर यानी करीब 7,500 करोड़ रुपयों की है। भारत सहित छह देश-कैलटेक (California Institute of Technology), अमेरिका, कनाडा, चीन व जापान इस महांयेाजना में मिलकर कार्य कर रहे हैं। अल्ट्रावायलेट (0.3 से 0.4 मीटर तरंगदैर्ध्य पराबैगनी किरणों) से लेकर मिड इंफ्रारेड (2.5 मीटर से एक माइक्रोन तरंगदैर्ध्य तक की अवरक्त) किरणों (टीवी के रिमोट में प्रयुक्त की जाने वाली अदृय) युक्त इस दूरबीन को प्रशांत महासागर में हवाई द्वीप के मोनाकिया द्वीप समूह में ज्वालामुखी से निर्मित 13,8 फिट (4,2 मीटर) ऊंचे पर्वत पर वर्ष 2021 में स्थापित किऐ जाने की योजना है। उम्मीद है कि इसे वहाँ स्थापित किए जाने का कार्य 2014 से शुरू हो जाएगा। यह दूरबीन हमारे सौरमंडल व नजदीकी आकाशगंगाओं के साथ ही पड़ोसी आकाशगंगाओं में तारों व ग्रहों के विस्तृत अध्ययन में अगले 50 -100  वर्षों तक सक्षम होगी। भारत को इस परियोजना में अपने ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी व उपकरणों के निर्माण में एक फीसद भागेदारी के साथ सहयोग देना है। देश के इंटर यूनिवर्सिटी सेंटर फार एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रो फिजिक्स (आईसीयूएए) पुणे को इसके सॉफ्टवेयर संबंधी, इंडियन इंस्टिूट ऑफ एस्ट्रो फिजिक्स (आईआईए) बंगलुरु को मिरर कंट्रोल सिस्टम और एरीज को मत्वपूर्ण ६०० मिरर सेगमेंट सर्पोंटिंग सिस्टम बनाने की जिम्मेदारी मिली है। यह महत्वपूर्ण हिस्से यांत्रिक के साथ ही इलेक्ट्रानिक सपोर्ट सिस्टम से भी युक्त होंगे। पीआरएल अमदाबाद व भाभा परमाणु संस्थान-बार्क मुम्बई को भी कुछ छोटी जिम्मेदारियां मिली हैं। एरीज को मिली जिम्मेदारी को सर्वाधिक मत्वपूर्ण माना जा रहा है, क्योंकि उसे देश की सबसे बड़ी 3.6 मीटर व्यास की दूरबीन को निकटवर्ती देवस्थल में स्थापित करने हेतु तैयार करने का अनुभव है। एरीज के निदेशक प्रो. रामसागर इस जिम्मेदारी से खासे उत्साहित हैं। उन्होंने बताया कि मिरर सेगमेंट सपोर्टिंग सिस्टम को किसी निर्माता कंपनी से बनाया जाएगा, जिसके चयन की प्रक्रिया शुरू हो गई है। एरीज इसके निर्माण में 3.6 मीटर दूरबीन की तरह ही डिजाइन, सुपरविजन और इंजीनियरिंग में सयोग करेगा।

अवरक्त किरणों को देखना है चुनौती
देश-दुनिया में बड़ी से बड़ी व्यास की दूरबीन बनाने की कोशिशों का मूल कारण अवरक्त यानी इन्फ्रारेड किरणों को न देख पाने की समस्या है। दुनिया में अब तक मौजूद दूरबीनें 35 से 70 तरंग दैर्ध्य की किरणों तथा ऐसी किरणें उत्सर्जित करने वाले तारों व आकाशगंगाओं को ही देख पाती हैं। जबकि इससे अधिक तरंग दैर्ध्य की अवरक्त यानी इंफ्रारेड किरणों को देखने के लिए इनके अनुरूप पकरणों की जरूरत होती है। ऐसी बड़ी दूरबीनें ऐसी प्रकाश व्यवस्था से भी जुडी होंगी जो बड़ी तरंग दैर्ध्य की अवरक्त किरणों के माध्यम से बिना वायुमंडल और ब्रह्मांड में विचलित हुए सुदूर अंतरिक्ष के निर्दिस्थ स्थान पर पहुँचकर वहाँ का हांल बता पाऐंगी। प्रोजक्ट वैज्ञानिक आईयूसीएए के डा.एएन रामप्रकाश ने बताया कि 30 मीटर की दूरबीन 3.6 मीटर की दूरबीन के मुकाबले 81 गुने मद्धिम रोशनी वाले तारों को भी देख पाएगी।

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

देश में पहुंची एशिया की दूसरी सबसे बड़ी दूरबीन, देवस्थल में होगी स्थापित


नैनीताल के देवस्थल में स्थापित होगी 3.6 मीटर व्यास की दूरबीन गुजरात के मुन्द्रा बंदरगाह से दिल्ली के लिए रवाना
नवीन जोशी नैनीताल। दुनिया की आधुनिकतम तकनीक के साथ देश ही नहीं एशिया की सबसे बड़ी 3.6 मीटर व्यास की दूरबीन भारत पहुंच गई है। गुजरात के मशहूर मुन्द्रा बंदरगाह पर उतरकर यह राजधानी दिल्ली के लिए रवाना कर दी गई है। आगे इसे नैनीताल जनपद के देवस्थल में स्थापित किया जाना है। देवस्थल के प्रदूषणमुक्त स्वच्छ वायुमंडल में 120 करोड़ रुपये लागत से स्थापित की जा रही इस दूरबीन से रात्रि में सुदूर अंतरिक्ष में जगमगाने वाले सितारों व अपनी "मिल्की-वे" के साथ ही आस-पास की अनेक आकाशगंगाओं को देखा एवं उनका सूक्ष्म अध्ययन भी किया जा सकेगा। उल्लेखनीय है कि एशिया में गत वर्ष ही चीन में एक चार मीटर व्यास की दूरबीन लग चुकी है, बावजूद देवस्थल में लगने जा रही दूरबीन कई मायनों में एशिया की सर्वश्रेष्ठ दूरबीन ही कहलाई जाएगी। एरीज के निदेशक प्रो. रामसागर के अनुसार 3.6 मीटर व्यास और 22 मीटर ऊंची दुनिया की आधुनिकतम एक्टिव आप्टिक्स तकनीक पर बनी इस स्टेलर दूरबीन का शीशा केवल 16.5 सेमी. ही मोटा है। इस प्रकार यह मोटाई और व्यास के अनुपात (व्यास व मोटाई में 10 का अनुपात) में दुनिया में अद्वितीय बताई जा रही है। चीन में लगी दूरबीन कई टुकड़ों (मोजैक) को जोड़कर बनाई गई है। इस दूरबीन के ब्लैंक का निर्माण जर्मनी में और शीशे का निर्माण मास्को (रूस) में हुआ है। यहां से इसे बेल्जियम ले जाकर वहां इसका फैक्टरी टेस्ट किया गया। यह इतनी विशालकाय है कि इसे सफल परीक्षणों के उपरांत खोलने में ही जून से अक्टूबर 2012 तक पांच माह का समय लग गया। इसके बाद नवम्बर में यह भारत के लिए रवाना की गई और बीते माह 15 दिसम्बर के करीब मुन्द्रा बंदरगाह पहुंची। वहां से कस्टम की औपचारिकताओं के बाद इसके करीब 5.6 मीटर लंबे, 5.3 मीटर चौड़े व 1.2 मीटर ऊंचे करीब 13 व 12 टन भारी 18 विशालकाय क्रेट्स (डिब्बों) में 12 ट्रेलरों पर दिल्ली लाया जा रहा है। दिल्ली से आगे हल्द्वानी और आगे पहाड़ पर इसे पहुंचाने का रास्ता और भी कठिन है, लिहाजा मई तक इसके देवस्थल पहुंचने और इस वर्ष अक्टूबर माह तक इससे प्रारंभिक प्रेक्षण किए जाने की संभावना है। प्रो. रामसागर के अनुसार इस दूरबीन से तारों के वर्णक्रम का अध्ययन किया जा सकेगा। दूरबीन के शीशे (मिरर) का निर्माण मास्को की एलजोज नामक कंपनी ने किया है। 

इस समाचार को मूलतः यहाँ क्लिक कर 'राष्ट्रीय सहारा' के 5 जनवरी के अंक में प्रथम पेज पर भी देख सकते हैं।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

स्विफ्ट टटल धूमकेतु से सशंकित है दुनिया !


2016 व 2040 में पृथ्वी के पास से गुजरेगा स्विफ्ट टटल 
धूमकेतुओं को बताया जाता है पृथ्वी से डायनासौर के विनाश का कारण 
1994 में बृहस्पति से टकराया था लेवी सूमेकर धूमकेतु, जिससे सूर्य के वलय भी प्रभावित हो गये थे, 
एरीज में लिये गये थे घटना के चित्र
नवीन जोशी/नीरज कुमार जोशी नैनीताल। यों तो पृथ्वी के भविष्य को लेकर वैज्ञानिकों व पंडितों की ओर से अक्सर अनेक चिंताजनक भविष्यवाणियां की जाती रही हैं और अब तक ऐसी हर संभावना निर्मूल भी साबित होती रही है। लेकिन पृथ्वी के बाबत नई चिंता इस बात को लेकर उत्पन्न हो गई है कि वर्ष 2016 और वर्ष 2040 में स्विफ्ट टटल नामक एक विशालकाय धूमकेतु पृथ्वी के पास से गुजर सकता है। इसकी दूरी पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण शक्ति की जद में ना जाए, इस बात की चिंता है। यदि यह पृथ्वी से टकरा गया, तो इसके परिणामों का अंदाजा 1994 में पृथ्वी से कई गुना बड़े ग्रह बृहस्पति पर शूमेकर लेवी नाम के एक पृथ्वी से बड़े आकार के धूमकेतु की टक्कर के परिणामों से लगाया जाने लगा है, जिसमें शूमेकर पूरी तरह नष्ट हो गया था। बृहस्पति के वलयों पर भी इसका प्रभाव पड़ा था। इस आधार पर वैज्ञानिक 2016 व 2040 में पृथ्वी पर व्यापक नुकसान होने की संभावना की हद तक आशंकित हैं। 
शूमेकर धूमकेतु के बृहस्पति पर टकराने की घटना का नैनीताल के आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान यानी एरीज के वैज्ञानिकों ने भी अध्ययन किया था और वह अपनी एक मीटर व्यास की दूरबीन से इस घटना के कई चित्र लेने में सफल रहे थे। इधर देश-दुनिया के साथ एरीज के वैज्ञानिक भी 2016 में स्विफ्ट टटल एसएन 1998  नाम के धूमकेतु के पृथ्वी के पास से गुजरने की संभावित घटना को लेकर चिंतित हैं और 1994 की घटना के अध्ययनों के आधार पर ही 2016 में किसी अनिष्ट की संभावना को टालने के लिए प्रयासरत हैं। 
गौरतलब है कि वर्ष 1994 खगोलीय घटनाओं के लिए सर्वाधिक याद किया जाता रहा है। इसी वर्ष 16 से 22 जुलाई तक जो कुछ घटा, उसने दुनिया भर के वैज्ञानिकों को शोध के लिए अच्छा प्लेटफार्म तो दिया ही साथ ही भविष्य में इस तरह की घटनाओं से पृथ्वी को बचा सकने की तैयारियों के लिए भी लंबा समय दिया। इस दौरान बृहस्पति पर शूमेकर लेवी नाम के एक धूमकेतु के विभिन्न आकार के टुकड़ों के टकराने से आतिशबाजी जैसी घटना हुई,फलस्वरूप शूमेकर धूमकेतु टकराने से नष्ट हो गया था। उल्लेखनीय है कि लगभग छह करेाड़ वर्ष पहले पृथ्वी से विशालकाय डायनसोरों के अंत का कारण भी धूमकेतुओं के पृथ्वी से टकराने को माना जाता है। भारत के लिए यह सौभाग्य रहा कि नैनीताल स्थित एरीज में इस महत्वपूर्ण खगोलीय घटना के दिन अध्ययन किया गया। एरीज में एक मीटर व्यास की दूरबीन के साथ लगे सीसी टीवी कैमरों से इस दुर्लभ खगोलीय घटना का अध्ययन किया गया था। इस टीम में डा. जेबी श्रीवास्तव, डा. बीबी सनवाल, डीसी जोशी, डा. एचएस मेहरा, डा.एके पांडे व डा. बीसी भट्ट ने सौर घटना के महत्वपूर्ण फोटो द्वारा इस पर शोध किया। इस बाबत पूछे जाने पर एरीज के वरिष्ठ वैज्ञानिक डा.शशिभूषण पांडे कहते हैं कि वर्ष 2016 और वर्ष 2040 में भी धूमकेतु पृथ्वी के करीब से गुजरेगा। धूमकेतु व पृथ्वी की यह नजदीकी पृथ्वी व चंद्रमा के बीच की दूरी की 30 गुना तक हो सकती है। इतनी दूर से गुजरने को भी खगोल विज्ञान के दृष्टिकोण से पास से गुजरना ही कहा जाता है।

धूमकेतु क्या होते हैं ? 
नैनीताल। धूमकेतु अंतरिक्ष में घूमने वाले ऐसे सूक्ष्म ग्रह हैं जो सौरमंडल में मंगल व बृहस्पति ग्रहों के बीच बहुतायत क्षेत्र मे फैले हैं। कभी-कभार ये पृथ्वी के आसपास भी भटकते हैं। इसी तरह का एक धूमकेतु लेवी शूमेकर भी रहा। जिसकी खोज वैज्ञानिक कैरोलिन शूमेकर व डेविड लेवी ने 1993 में की थी। यह धूमकेतु बृहस्पति से टक्कर में 22 जुलाई 1994 को नष्ट हो गया। वैज्ञानिक आंकड़ों के अनुसार इस टक्कर से लगभग साढ़े चार करोड़ मेगाटन टीएनटी मात्रा में ऊर्जा भी निकली थी। ज्ञात रहे कि इस तरह की टक्कर पृथ्वी से होती तो यहां जीवन के साथ-साथ पृथ्वी का अस्तित्व भी नहीं रहता। विश्व भर के अंतरिक्ष शोध संस्थान इस घटना से प्राप्त फोटो के आधार पर पिछले डेड़ दशक से शोध कर रहे हैं। 
खगोल वैज्ञानिकों के लिए अच्छा ‘टेस्ट मैच’
नैनीताल। एक ओर जहां धूमकेतु की पृथ्वी से टकराने की घटना ने खगोल वैज्ञानिकों के माथे पर चिंता की लकीर खीचीं है, दूसरी ओर भविष्य की इस संभावित घटना के लिए अच्छा प्लेटफार्म भी पाया है। इस बाबत एरीज के वरिष्ठ सौर वैज्ञानिक बहाबउद्दीन बताते हैं कि इस तरह की घटनाओं से निपटने की तैयारियों में खगोल विज्ञान और शक्तिशाली होता रहा है। दूसरी ओर यह माना जा रहा है इस तरह कि संभावित घटना पृथ्वी को आकाशीय पिंडों से बचाने व उन्हें दूर धकेलने व मिसाइल आदि से समुद्री क्षेत्र में गिराने की नई सौर तकनीकों से रूबरू होगा। यह भी सच है कि इस संभावित घटना से सौर वैज्ञानिक कई महत्वपूर्ण खोजों के साथ कईं आंकड़े भी जुटा पायेगें। 
पृथ्वी का बॉडीगार्ड है बृहस्पति 
नैनीताल। वेद पुराणों में बृहस्पति को गुरु का दर्जा मिला है। वहीं सौर विज्ञान में यह बॉडीगार्ड की भूमिका को निभाता रहा है। आकार में पृथ्वीं से कई गुना बड़ा होने के कारण यह पृथ्वी की सौर कक्षा की ओर आने वाले आकाशीय पिंडों को अपने गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में लेकर उन्हें पृथ्वी की ओर आने से रोकता है।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

दुनिया की नजरें फिर महा प्रयोग पर


"Big Bang Theory" के इस महा प्रयोग में शामिल वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्हें हैग्ग्स पार्टिकल्स दिखे हैं, पर इस खबर की अभी भी पुष्टि होनी बाकी है...हैग्ग्स पार्टिकल्स को श्रृष्टि में जीवन के जनक या ईश्वर के कण तक कहा जा रहा है...वैसे इनका नाम हैग्ग्स-बोसोन कण है, जिसमें बोसोन भारतीय वैज्ञानिक एससी बोस के नाम पर है....यदि यह कण न दिखे तो विज्ञान की कई अवधारणाओं की सत्यता खतरे में पड़ जायेगी..... 

बुधवार, 24 अगस्त 2011

एरीज से हवा की ’फितरत‘ पर नजर

एरीज में वायुमंडल में 30-32 किमी तक के प्रदूषण का मापन शुरू हीलियम गैस से भरे गुब्बारों में लगाए गए उपकरणों से एकत्रित किए जाते हैं आंकड़े
नवीन जोशी नैनीताल। नैनीताल के आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान ‘एरीज’ से हवा में आने वाले प्रदूषण पर नजर रखी जा रही है। आने वाले दिनों में राज्य के लिए यंह ‘कार्बन क्रेडिट’ मांगने का आधार साबित हो सकता है। एरीज में इसरो, अमेरिका के ऊर्जा विभाग व आईआईएससी बेंगलुरु के सहयोग से परियोजना चल रही है। इसके तहत हर सप्ताह वायुमंडल में हीलियम गैस से भरे गुब्बारों को वायुमंडल में छोड़ा जाता है। ये गुब्बारे धरती की सतह से 30 से 32 किमी. की ऊंचाई तक जाते हैं। अपने साथ लेकर गए दो उपकरणों ‘ओजोन सौंडे’ व ‘वेदर सौंडे’ की मदद से हवाओं की दिशा, दबाव, तापमान व ओजोन की मात्रा जैसे आंकड़े एकत्र करते हैं। इतनी ऊंचाई तय करने में गुब्बारों को करीब एक से डेढ़ घंटे लगते हैं, इस दौरान यह लगातार आंकड़े देते रहते हैं। इस परियोजना के वैज्ञानिक डा. मनीष नजा का कहना है कि नैनीताल के वायुमंडल में चूंकि अपना प्रदूषण नहीं है। यहां के वायुमंडल से प्राप्त प्रदूषण व ओजोन गैस के आंकड़े पूरी तरह से बाहर से आने वाली हवाओं के माध्यम से लाए होते हैं। इसलिए वायुमंडल में आने वाली हवाओं की दिशा का अध्ययन किया जा रहा है। आने वाले तीन माह में इस बाबत ठोस तरीके से कहा जा सकेगा कि देश-दुनिया के किस क्षेत्र के प्रदूषण का यहां के वायुमंडल पर प्रभाव पड़ रहा है। अब तक के अध्ययनों से यह देखा गया है कि पहाड़ पर अप्रैल-मई में लगने वाली जंगलों की आग के कारण पांच किमी से ऊपर के वायुमंडल में ओजोन की अत्यधिक मात्रा रिकार्ड की गई है। शेष समय मात्रा सामान्य है। 
मैदानी क्षेत्रों पर भी नजर : 
एरीज में एक अन्य परियोजना ‘गंगा वैली ऐरोसोल एक्सपेरीमेंट’ के तहत हर दिन चार छोटे गुब्बारे भी हवा में छोड़े जा रहे हैं। इनके माध्यम से गंगा के मैदानी क्षेत्रों में औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप हो रही ग्लोबल वार्मिग व ग्लोबल कूलिंग तथा सौर विकिरण पर पड़ रहे प्रभाव का आकलन किया जा रहा है। मौसम वैज्ञानिक डा. मनीष नजा के अनुसार भविष्य में पंतनगर और लखनऊ से भी इस प्रकार के आंकड़े लिए जाएंगे। उपग्रह से प्राप्त चित्रों में इन क्षेत्रों में काफी मात्रा में औद्योगिक प्रदूषण देखा गया है, जिसका अब विस्तृत अध्ययन किया जा रहा है। 
उपकरण लौटाने पर इनाम : 
बैलून के जरिए वायुमंडल में छोड़े जाने वाले उपकरण करीब चार घंटे में धरती पर कहीं भी आ गिरते हैं। हालांकि जीपीएस सिस्टम से जुड़े इन उपकरणों के गिरने के बावजूद पूरी जानकारी एरीज में होती है। इसके बावजूद यहां के अधिकारियों ने इनकी सूचना देने व लौटाने पर पांच सौ व एक हजार रुपये के इनाम घोषित किए हैं। इन उपकरणों पर इनाम की जानकारी और लौटाने का पता भी लिखा होता है। इसलिए यदि आपको कहीं ऐसे पता व सूचना लिखे वैज्ञानिक उपकरण मिल जाएं तो इन्हें एरीज को लौटाकर इनाम ले सकते हैं।