नैनीताल (एसएनबी)। राज्य गठन के दस साल बाद उत्तराखंड हाईकोर्ट में राष्ट्रभाषा हिंदी में कार्यवाही की अनुमति के लिए राज्य विधिज्ञ परिषद ने पहली बार प्रस्ताव पारित किया है। परिषद ने यह प्रस्ताव शासन के साथ ही मुख्यमंत्री को भेजा है। अब राज्य के "साहित्यकार" मुख्यमंत्री और उनकी सरकार पर निर्भर करेगा कि वह इस प्रस्ताव पर नोटिफिकेशन जारी करने में कितना समय लगाते हैं।
बुधवार को उत्तराखंड राज्य विधिज्ञ परिषद के अध्यक्ष डा. महेंद्र पाल ने पत्रकारों को बताया कि परिषद की गत सात अप्रैल को हरिद्वार में आयोजित कार्यकारिणी समिति की बैठक में इस बावत प्रस्ताव पारित हुआ। लिहाजा उत्तराखंड सरकार विज्ञप्ति जारी करे कि उच्च न्यायालय इलाहाबाद की भांति उच्च न्यायालय नैनीताल में विधिक कार्यवाहियां अंग्रेजी के साथ हिंदी में भी हो सके। डा. पाल ने कहा कि उच्च न्यायालय में हिंदी भाषा का प्रयोग होने से अधिवक्ताओं के साथ ही वादकारियों को भी लाभ होगा। अन्य हिंदी भाषी राज्यों बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान व उत्तर प्रदेश के उच्च न्यायालयों में ऐसी व्यवस्था है। पूर्ववर्ती यूपी में यह व्यवस्था थी, इसलिए उत्तराखंड में स्वत: ही यह व्यवस्था लागू होनी चाहिए थी। साथ ही मुंसिफ न्यायालयों में अनुभवी अधिवक्ताओं को विशेष न्यायाधीश तथा परिवार न्यायालयों में अधिवक्ताओं की न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए विज्ञप्ति जारी की जाए। इस मौके पर परिषद के सचिव विजय सिंह, हिमांशु सिन्हा व एनएस कन्याल आदि सदस्य भी मौजूद रहे।
5 टिप्पणियां:
राजभाषा पर संसदीय समिति ने दिनांक 28.11.1958 को संस्तुति की थी कि उच्चतम न्यायालय में कार्यवाहियों की भाषा हिंदी होनी चाहिए| उक्त संस्तुति को पर्याप्त समय व्यतीत हो गया है किन्तु इस दिशा में आगे कोई सार्थक प्रगति नहीं हुई है| जनगणना के आंकड़ों के अनुसार देश में अन्ग्रेजी भाषी लोग मात्र 0.021% ही हैं| इस दृष्टिकोण से भी अत्यंत अल्पमत की, और विदेशी भाषा जनता पर थोपना जनतंत्र का स्पष्ट निरादर है| देश की राजनैतिक स्वतंत्रता के 65 वर्ष बाद भी देश के सर्वोच्च न्यायालय की कार्यवाहियां अनिवार्य रूप से ऐसी भाषा में संपन्न की जा रही हैं जो 1% से भी कम लोगों द्वारा बोली जाती है| इस कारण देश के सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों से अधिकांश जनता में अनभिज्ञता व गोपनीयता, और पारदर्शिता का अभाव रहता है| जनता द्वारा समझे जाने योग्य भाषा में सूचना प्रदानगी के बिना अनुच्छेद 19 में गारंटीकृत “जानने का अधिकार” भी अर्थहीन है| सुप्रीम कोर्ट ने क्रान्ति एण्ड एसोसियेटेड बनाम मसूद अहमद खान की अपील सं0 2042/8 में कहा है कि इस बात में संदेह नहीं है कि पारदर्शिता न्यायिक शक्तियों के दुरूपयोग पर नियंत्रण है। निर्णय लेने में पारदर्शिता न केवल न्यायाधीशों तथा निर्णय लेने वालों को गलतियों से दूर करती है बल्कि उन्हें विस्तृत संवीक्षा के अधीन करती है। कई बार माननीय उच्चतम न्यायालय ने अपने महत्वपूर्ण निर्णयों के सार दूरदर्शन पर हिंदी भाषा में जारी करने के निर्देश दिए हैं| अब माननीय संसद द्वारा समस्त कानून हिंदी भाषा में बनाये जा रहे हैं और पुराने कानूनों का भी हिंदी अनुवाद किया जा रहा अतः उच्चतम न्यायालय द्वारा हिंदी भाषा में कार्य करने में कोई कठिनाई नहीं है|
-मनीराम शर्मा
सही कह रहे हैं शर्मा जी. ..जब न्यायिक संसथान ही हिंदी से न्याय नहीं कर रहे तो औरों से उम्मींद ही बेमानी है.
निचले न्यायालयों में हिंदी और राज्यों की राजभाषाओं का प्रयोग हो रहा है। परंतु उच्च न्यायालयों में हिंदी का प्रयोग नगण्य है। उच्च न्यायालयों में अभी भी प्लीडिंग्स अंग्रेज़ी भाषा में ही प्रस्तुत करना अनिवार्य है। इसके लिए संविधान में संशोधन आवश्यक है और उसके बारे में कोई सोचता ही नहीं है।
सही कहा सर.
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