संसद में हिमालय को लेकर कभी गंभीरता से नहीं हुई चर्चा, राजनीतिक दल हिमालय पर करें मंथन जलवायु परिवर्तन होने के दुष्प्रभावों पर भी राजनीतिक दल हों गंभीर हिमालय क्षेत्र में जैव विविधता का संरक्षण करने की अत्यंत आवश्यकता
हिमालय को वाटर टावर ऑफ एशिया कहा जाता है। भारत में उत्तराखंड सहित 12 राज्य हिमालयी क्षेत्र में आते हैं। भारत की 60 करोड़ आबादी हिमालय से सीधे या परोक्ष तौर पर प्रभावित होती है, लेकिन हिमालयी क्षेत्रों का दुर्भाग्य है कि देश के 16 फीसद भूभाग में फैले होने के बावजूद यहां देश की केवल चार फीसद जनसंख्या ही वास करती है। शायद इसीलिए हिमालयी क्षेत्र देश और राजनीतिक दलों के एजंेडे में कभी प्रमुखता नहीं रहा है। देश की संसद में 50 यानी करीब 10 फीसद सांसद हिमालयी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन अफसोस कि कभी भी हिमालय के बारे में बात संसद में उस गंभीरता के साथ नहीं रखी गई और न ही वहां अपेक्षित आयामों पर बहस ही हुई।
वर्ष 2009 में केंद्र सरकार ने ‘जलवायु परिवर्तनों के दुष्प्रभावों से निपटने’ के लिए जो आठ ‘मिशन’ योजनाएं बनाई थीं, उनमें ‘नेशनल मिशन आफ सस्टेनिंग हिमालयन ईको सिस्टम’ यानी हिमालयी क्षेत्रों में सतत पारिस्थितिकीय विकास की राष्ट्रीय योजना भी शामिल है। अल्मोड़ा जनपद के कोसी में स्थित गोविंद बल्लभ पंत हिमालयन पर्यावरण विकास संस्थान कोसी-कटारमल ने इस मिशन के तहत काफी कार्य किया। हिमालयी क्षेत्रों में सतत पारिस्थितिकीय विकास के लिए शासन नाम से गाइडलाइन तैयार की गई। इसमें बताया गया कि किस तरह विकास और पर्यावरण को एक-दूसरे का पूरक बनाया जाए। हिमालयी क्षेत्र की जैव विविधता का संरक्षण कैसे किया जाए, किस मात्रा में हिमालयी क्षेत्र से जड़ी-बूटियों व प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया जाए, और कैसे उनका संरक्षण किया जाए। साथ ही कैसे हिमालय की जैव विविधता, उसकी खूबसूरती, खनिजों, जल, जंगल, जमीन और अन्य आयामों को बिना नुकसान पहुंचाए यहां के निवासियों की आजीविका से भी जोड़ा जाए। इन गाइड लाइन में ‘ग्रीन रोड’ यानी ऐसी सड़कें बनाने की बात कही गई है जो प्रकृति व पर्यावरण का संरक्षण करते हुए व उसे बिना छेड़े हुए बनाई जा सकती हैं। साथ ही सामान्यतया कहा जाता है कि विकास और पर्यावरण एक-दूसरे के साथ नहीं चल सकते। यदि आज की तरह का विकास होगा, तो उससे निश्चित ही पर्यावरण को नुकसान पहुंचेगा, और यदि पर्यावरण का ही संरक्षण किया जाएगा, तो इससे विकास वाधित होगा। लेकिन विकास मनुष्य की आवश्यकता है, इसलिए विकास जरूरी है और हमें ‘पर्यावरण सम्मत’ विकास की बात करनी होगी। विकास के वैकल्पिक उपाय, जैसे सड़कों के स्थान पर रोप-वे, परंपरागत ऊर्जा के साधनों के स्थान पर सौर व वायु ऊर्जा जैसे वैकल्पिक ऊर्जा के साधन, वष्ा जल संग्रहण, सिंचाई के लिए स्प्रिंकुलर विधि आदि का प्रयोग करना होगा। हिमालयी क्षेत्र इतना बृहद है। खासकर पूरे भारत वर्ष को हिमालय प्रभावित करता है, इसलिए हिमालय के बारे में देश को अलग से सोचना पड़ेगा। हिमालय के लिए सतत विकास की अलग नीति बनानी होगी। इस मुद्दे को राजनीतिक एजेंडे में प्रमुखता से शामिल किया जाना चाहिए। (नवीन जोशी से बातचीत पर आधारित)
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