147 अस्पतालों में 127 चिकित्सक, पहाड़ से तबादले को अधिकारियों पर दबाव
नवीन जोशी नैनीताल। कुमाऊं मंडल के मुख्यालय व वीआईपी जनपद नैनीताल में चिकित्सा विभाग की कहानी राज्य की समूची व्यवस्था की तस्वीर बयां करने के लिए काफी है। पहली नजर में आप इसे अजूबा मान सकते हैं कि जिले में 147 छोटे-बड़े चिकित्सालयों के सापेक्ष केवल 127 चिकित्सक ही उपलब्ध हैं और स्वीकृत 229 पदों के सापेक्ष 102 पद रिक्त हैं, बावजूद अधिकारी जिले में एक भी चिकित्सालय के चिकित्सक विहीन न होने का दावा कर रहे हैं। यह दावा कमोबेश सही भी है लेकिन यह कैसे संभव है, इसके लिए जो प्रबंध किये गये हैं, वह गंभीर सवाल खड़े करने वाले हैं। पहले जिले में मौजूद चिकित्सालयों व चिकित्सकों के पदों व उपलब्धता की बात कर ली जाए- यहां छह बड़े चिकित्सालय, छह टीवी से संबंधित सेनिटोरियम, क्लीनिक आदि, चार सीएचसी, छह पीएससी, 13 एडीशनल पीएससी, एक-एक पुलिस व हाईकोर्ट हास्पिटल, 31 राजकीय एलोपैथिक चिकित्सालय, दो ग्रामीण महिला हास्पिटल, 67 ग्रामीण उप केंद्र तथा सात अटल आदर्श गांवों में खोले गये अस्थाई मिलाकर कुल 147 चिकित्सालय मौजूद हैं। इन चिकित्सालयों में एलोपैथिक डाक्टरों के 106 स्वीकृत पदों के सापेक्ष केवल 52 चिकित्सक उपलब्ध हैं, जबकि इससे अधिक 54 पद रिक्त हैं। इसी तरह 25 में से 21 महिला चिकित्सक, 64 में से 31 विशेषज्ञ चिकित्सक व 34 में से 23 चिकित्सा अधिकारी ही मौजूद हैं। यानी एक लाइन में कहें तो जिले के 147 अस्पतालों में 229 स्वीकृत पदों के सापेक्ष केवल 127 चिकित्सक ही उपलब्ध हैं। जाहिर है 102 पद रिक्त हैं। बावजूद जिले के मुख्य चिकित्सा अधिकारी डा.डीएस गब्र्याल के अनुसार जिले में एक भी अस्पताल चिकित्सक विहीन नहीं है। उनका दावा इस आधार पर सही भी ठहराया जा सकता है कि जिले के चिकित्सक विहीन चिकित्सालयों को सेवानिवृत्ति के बाद संविदा पर महज एक वर्ष के लिए रखे गये करीब 38 बूढ़े चिकित्सकों से भरा गया है, जबकि शेष बची जगहों पर होम्योपैथिक व चिकित्सा की अन्य विधाओं के चिकित्सकों से भरा गया है। चिकित्सा नियमावली का पालन किया जाए तो होम्योपैथिक चिकित्सक एलोपैथिक दवाइयां नहीं दे सकते हैं। इसी तरह आयुव्रेदिक चिकित्सक भी अपनी ही पैथी की दवाइयां दे सकते हैं लेकिन स्वास्थ्य महानिदेशालय ने फिलहाल चिकित्सकों को ड्रग कंट्रोल एक्ट के दायरे से बाहर रखा हुआ है। इस परिधि में केवल फार्मासिस्ट ही लाये गये हैं। कहा जा सकता है कि झगड़े की जड़ फार्मासिस्ट को माना गया है, वरना इस तरह का फरमान जारी करने से पहले दस बार सोचा जाता। निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि जिले में कामचलाऊ व्यवस्था के तहत चिकित्सालयों को चिकित्सक विहीन न रखने की आंकड़ेबाजी तो अच्छी की गई है, पर इसका लाभ जनता को मिल रहा है या नहीं, इसकी किसी को चिंता नहीं है। बहरहाल स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी कुछ हद तक आस्त हैं कि राज्य के मेडिकल कालेजों से सस्ती फीस पर डाक्टरी करने वाले चिकित्सकों की खेप आने के बाद समस्या का काफी हद तक समाधान निकल आएगा।
2 टिप्पणियां:
उत्तराखंड को पंजाब से सीखना चाहिये. वहां सरकार एकमुश्त राशि पर MBBS डाक्टरों की नियुक्ति उनके घर के पास करती है. डिस्पेंसरी व दवा के स्टाक की देखरेख पंचायत के माध्यम से होती है. डाक्टर लोकल होता है तो वह कहीं नहीं भागना चाहता. पंचायत के involve रहने से दवा की ख़रीद व सप्लाई में धांधली समाप्त हो जाती है. डाक्टर के लोकल होने से लोगों के साथ उसका तादात्म्य कहीं अच्छा रहता है व वह कामचोरी नहीं करता. पंचायत उसके खिलाफ लिच भी सकती है, पर इस तरह की नौबत नहीं आती.
संतरी पर नीले रंग में पढ़ना बड़ा दुरूह कार्य है नवीन जी, कृपया रंग व्यवस्था को बदलें.
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