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मंगलवार, 14 जनवरी 2014

'शत्रु संपत्ति' मेट्रोपोल के हिस्से पर रातों-रात किये कब्जे

  • पांच लोगों के विरुद्ध प्रशासन ने दर्ज कराई एफआईआर 
  • जिला प्रशासन के नियंत्रण में होती हैं सभी शत्रु संपत्तियां

नैनीताल (एसएनबी)। नगर स्थित राजा महमूदाबाद अमीर मोहम्मद खान की प्रशासन के कब्जे वाली अरबों रुपये की शत्रु संपत्ति मेट्रोपोल होटल परिसर में बड़े पैमाने पर रातों-रात कुछ लोगों ने कब्जा कर लिया। लोगों ने चीना बाबा मंदिर से नीचे की ओर बड़े नाले के किनारे करीब 50 मीटर लंबाई में अतिक्रमण कर टिनशेडों का निर्माण भी कर डाला। रातभर क्षेत्र में निर्माण होने से खूब हो-हल्ला रहा। अलबत्ता शत्रु संपत्ति के कस्टोडियन जिला प्रशासन को इसकी भनक भी नहीं लगी। दिन में सूचना मिलने पर प्रशासन ने निर्माण ढहाकर सामग्री जब्त कर ली है। साथ ही पांच लोगों के विरुद्ध मल्लीताल कोतवाली में एफआईआर दर्ज करा दी गई है। मंगलवार सुबह भाजपा नेता मनोज जोशी ने डीएम अरविंद सिंह ह्यांकी सहित अन्य प्रशासनिक अधिकारियों को मेट्रोपोल परिसर में रात्रि में बड़े पैमाने पर कब्जे होने व टिनशेड लगाए जाने की सूचना दी। इस पर एसडीएम शिवचरण द्विवेदी ने राजस्व पुलिस, पुलिस व नगर पालिका की गैंग की मदद से क्षेत्र में कब्जा कर किये गए निर्माण को ध्वस्त करवा दिया और निर्माण सामग्री जब्त करवा दी। मामले में तहसीलदार बहादुर सिंह लटवाल की ओर से मल्लीताल कोतवाली में कब्जा कर रहे फारूख पुत्र मो. हनीफ, नजाकत पुत्र मो. हशमत, असलम पुत्र अमजद, जमील पुत्र अब्दुल गफ्फूर व यूसुफ पुत्र अहमद के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करा दी गई है। कब्जे हटाने की कार्रवाई में कार्रवाई में सीओ हरीश कुमार, नायब तहसीलदार नीलू चावला, कोतवाल हरक सिंह फिरमाल, तल्लीताल थाना प्रभारी उत्तम सिंह आदि लोग शामिल रहे।

अपने दौर का सबसे बड़ा होटल था मेट्रोपोल

नैनीताल। नगर के अपने दौर के सबसे बड़े 41 कमरे के मेट्रोपोल होटल का निर्माण मि. रेंडल नाम के अंग्रेज ने किया था। बाद में यह राजा महमूदाबाद की संपत्ति हो गई। देश की आजादी के बाद यह संपत्ति राजा के इकलौते चश्मो-चिराग राजा अमीर मोहम्मद खान के हिस्से आयी, लेकिन इस पर अनेक लोगों का कब्जा रहा। इनमें से एक प्रमुख श्री लूथरा 1995 तक इसे होटल के रूप में चलाते रहे। वर्ष 2005 में न्यायिक प्रक्रिया के बाद इसे प्रशासन द्वारा शत्रु संपत्ति घोषित कर तथा कब्जे छुड़वाकर राजा के हवाले कर दिया गया, लेकिन बाद में दो अगस्त 2010 को न्यायालय के आदेशों पर इसे वापस जिला प्रशासन ने बतौर कस्टोडियन कब्जे में ले लिया था।

लाखों की आय के बावजूद सुरक्षा के कोई प्रबंध नहीं

नैनीताल। अरबों रुपये की प्रशासन के कब्जे वाली शत्रु संपत्ति मेट्रोपोल होटल में गत 26 नवम्बर की रात्रि भीषण अग्निकांड हो गया था, जिसमें होटल के बॉइलर रूम व बैडमिंटन कोर्ट तथा 14 कमरों वाला हिस्सा कमोबेश खाक हो गया था। तब भी होटल में कोई सुरक्षा प्रबंध नहीं थे और इसके बाद भी प्रशासन ने इसकी सुरक्षा के कोई प्रबंध नहीं किये हैं। गौरतलब है कि इस संपत्ति के मैदान को प्रशासन ग्रीष्मकाल में पार्किग के रूप में प्रयोग करता है, जिससे लाखों रुपये की आय भी प्राप्त होती है। राजा महमूदाबाद के प्रतिनिधि अब्दुल सत्तार ने बताया कि पूर्व में प्रशासन की ओर से यहां पुलिस कर्मी गार्ड के रूप में तैनात रहता था, लेकिन पिछले विस चुनाव के दौरान फोर्स की कमी होने पर गार्ड हटा तो उसके बाद तैनात ही नहीं किया गया।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ में कत्ती टपकी, काँयी चटैक छन और काँयीं फचैक: डॉ. प्रभा


'नवेंदु'क ‘उघड़ी आखोंक स्वींण’ कवितानै्कि पुन्तुरि नै पुर गढ़व छ, जमैं भाव और विचारना्क मोत्यूंल गछींण कतुकै किस्मैकि रंग-बिरंग मा्व भरी छन। यौ कविता संग्रह में समसामयिक विषयन पर कटाक्षै नै प्रतीक और बिम्ब लै छन। कत्ती-कत्ती दर्शन लै देखीं जाँ। उनरि ‘लौ’, ‘पत्त नै’, ‘रींड़’, ‘असल दगड़ू’ कविता यैक भल उदाहरण छन। जाँ एक तरप नवेंदु ज्यूल ‘दुंङ’, ‘तिनाड़’ जा्स प्राकृतिक उपादानूँ कैं कविताक विषय बणै राखौ, वायीं दुहरि उज्याणि ‘हू आर यू’, ‘कुन्ब’, ‘किलै’, ‘तरक्की’, ‘हरै गो पिरमू’, ‘भ्यार द्यो ला्ग रौ हो’, ‘मैंस अर जनावर, ‘अगर’, ‘परदेस जै बेर’ जसि कवितान में मैंसना्क मनोविज्ञान लै उघाड राखौ। एतुकै नै, एक पढ़ी-लेखी दिमागदार मैंसा्क चा्रि, उ लै समानताक लिजी महिला सशक्तिकरण के जरूरी मा्ननीं। तबै त उँ ‘तु पलटिये जरूर’ कैबेर, च्येलि-स्यैंणिया्ँक मन बै गुण्ड, लोफरनौ्क डर निकाउनै्कि बात कूँनीं और उनुकैं अघिल बढ़नौ्क बा्ट बतैबेर उनुधौं आ्पण तराण पछ्याणन हूँ कूँनीं- ‘‘तु जे लै पैरि/ला्गली बा्ट/घर बै/घर बै इ/ला्गि जा्ल गुण्ड/त्या्र पछिल....बस त्या्र पलटण तलक/और मैकैं फर विश्वास छु/तब त्वे में देख्येलि/उनुकैं झाँसिकि रा्णि/का्इ माता।’’
यमैं क्वे शक न्हैती कि प्रकृति होओ या हमरि जिन्दगि, रिश्त-ना्त होओ या खा्ण-पिण, संतुलन सब जा्ग जरूरी हूँ। जब-जब घर भितेर या भ्यार संतुलन बिगडूँ तब-तब हमौ्र पर्यावरण खराब हूँ, घर-परवार और समाजै्कि व्यवस्था लै गजबजी जैं। ‘जड़ उपा्ड़’ में उ कूँनीं-

‘‘जब बिगड़ि जाँ/मणीं म्यस/पाँणि लै/डाव बणिं/टोणि द्यूं/डा्वन कैं/खपो्रि/लगै द्यूँ/छा्ल घाम/घाम सुकै द्यू/पात पतेल कि/हुत्तै बोट कैं।’’
यौ साचि छ कि संसार कैं देखणौ्क सबनौ्क आ्पण-आ्पण ढंङ हूँ, पर ज्यूँन रूँणा्क लिजी उमींदैकि सबुन कैं जरूरत हैं। अगर मैंस कैं ‘उमींद’ नि होओ, त उ आपणि भितेर लिई साँस कैं भ्यार निकाउँण में लै डरन। उ भलीभाँ जा्णूँ कि अन्यारा्क बाद रोज उज्याव हूँ और जुन्या्लि राता्क बाद अमूँस जरूर ऐं, तबै त उकैं आ्स ला्ग रै अमूँसा्क बाद ज्यूँनिकि-
‘रङिल पिछौड़ में/आँचवा मुणि छो्पि/रङिल करि दये्लि/फिरि आङ ला्गि/अङवाल भरि/उज्या्यि करि दये्लि-ज्यूँनि।’’
जब लै कैकै मनम पीड़ हैं, त वीक आँखन बै आँसु च्वी जानीं और जब कभैं उ जसिक-तसिक आ्पण आँसुन कैं पि लै ल्यूँ, तब लै उ मनैमन डाड़ हालनै रूं। जसिक द्यौक पाणि धारती कैं नवै-ध्वेबेर वीक धाूल-मा्ट सब साप करि द्यूँ और उ हरिपट्ट देखींण फैजै, अगास में ला्गी बादव जब बरसि जानी त उ लै हल्क हैबेर इत्थै-उत्थै उड़ि जा्नीं। उसिकै जब मना्क अगास में उदेखा्क बादव ला्ग जानीं, तब आँख बै आँसु बरसिबेर वीक मन कै कल्ल पाड़नीं। पर, नवेंदु ज्युँक बिचार एहै अलग छन, तबै त उँ ‘डाड़ मारणैल’ कविता में कूँनी-
‘कि हुं/डाड मारणैल/जि छु हुणीं/उ त ह्वलै/के कम जै कि ह्वल, और लै सकर है सकूँ/फिर डाड़ किलै/फिर आँस का्स/फिर लै/जि ऊँणई आँ्स त/समा्इबेर धारि ल्हिओ/कबखतै-कत्ती/हँसि आ्लि अत्ती/काम आ्ल।’’
‘आँखर’ उनरि एक प्रयोगात्मक कविता छ। यौ छ, कम आँखरन में ज्यादे कूँणी। नान्तिनन कै भल लागणी, नान्छना्कि नर लगूणा और ‘घुघूती, बासूतिकि......फा्म दिलूणी जसि-
‘‘भै जा भि मै/के खै ले/यौ दै खा/ए-द्वि ‘पु’ लै खा/ ‘छाँ’ पि/‘घ्यू’ लै खा/धौकै खा।’’
‘आदिम’ कै पढ़िबेर उर्दू गजल कै पढ़नि जसि मिठी-मिठि लागै-
‘‘उँच महल में आदिम, कतुक ना्न जस ला्गू/कतुक लै लम्ब हो भलै, बा्न जस लागूँ।’’
‘काँ है रै दौड़’ में उनूंल आजा्क समाजैकि भभरियोयिक जो का्थ लेख राखी उकैं पढ़बेर लागूँ मैंस कैं भगवानै्ल एतुक दिमाग दि रा्खौ, पै लै उ संसारा्क भूड़पना ओझी किलै रौ, जो सिद्द-साद्द बाट छन उनूमें किलै नि हिटन? जब सबूकै संसार गाड़ाक वार बै पारै जाण छ, तब मैसूंल यौ भजाभाज किलै लगै रा्खी? अगर मैस दुहा्रनै्कि टाङ खैचण है भल आपुकै समावण में ला्ग जाओ, त वीक मनौ्क आधू असन्तोष त उसिकै दूर है जा्ल-
‘‘सब भाजणई-पड़ि रै भजाभाज/निकइ रौ गाज/करण में छन सिंटोई-सिंगार/अगी रौ भितेर भ्यार।’’
उसिक त टो्लि-बोलि मारणीं मैंस कैकैं भल नि ला्गन, पै साहित्य में सिद्दी बात है भलि उ बात ला्गैं जो घुमै-फिरैबेर कई जैं। सिद्दी बात उतुक असर नि करनि, जतुक बो्लिकि मार करैं। सैद येकै वील साहित्यकारन कैं व्यंग्यात्मक शैली में लेखण अत्ती भल ला्गूँ। यौ मामुल में ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ में कत्ती टपकी, काँयी चटैक छन और काँयीं फचैक। ‘ब्रह्मा ज्यूकि चिन्त’, ‘तु कूंछी’, ‘को छा हम’, ‘अच्याना्क मैंस’, ‘झन पिए शराब’, ‘न मर गुण्ड’, ‘फरक’, ‘खबरदार’, ‘पनर अगस्ता्क दिन’ जसि कविता, का्नना्क बीच में खिली फूलनै्कि जसि औरी भलि देखींनी-
‘‘आज छि छुट्टी/करौ मैंल ऐराम/सेइ रयूँ दिनमान भरि/लगा टीबी/क्वे पिक्चर नि उणै्छी/बजा रेडू/कैं फिल्मी गीत न उणाछी/सब ठौर उणाछी भाषण/द्यखण पणीं-सुणन पणीं/सुण्यौ, भारत माताकि जैक ना्र/करीब सात म्हैंण पछां/पैल फ्या्र/छब्बीस जनवरिक पछां।’’
ज्यून रूँणा्क लिजी जतुक जरूरी हूँ आङ में खून, उतुकै जरूरी छ पा्णि लै। दुणियाँक लिजी जतुक जरूरी छ दिन उतुकै रात लै, पराण्कि लिजी जतुक जरूरी हूँ ऐराम, उहै नै कम नै ज्यादे, जरूरी हूँ काम लै। मैंसै्कि ज्यूँनि में पिरेम भावैकि उई जा्ग छ, जो रेगिस्तान में पा्णिकि और ह्यू में घामै्कि। इज-बा्ब, भै-बै्णि, दगडू-सुवा सबूक परेम आ्पण-आ्पण जा्ग उतुकै जरूरी छ, जतुक साग में लूँण और खीर में चिनि। जब मैंस ज्वान हुण ला्गूँ, वीक नान्छना्क स्वींण लै बुरूँसा्क फूलूँक चा्रि खितखिताट करण फै जा्नीं। नान्छना आ्मैकि रा्ज-रा्णिक का्थै्कि रा्जै्कि च्येलि, ‘किरन परि’ बणि वीक मनम कुतका्इ लगूँण ला्गैं और उ करण ला्गूँ ‘स्वींणौ्क क्वीड़’
जापानिक ‘हाइकू’ हिन्दी में'इ नै, अब कुमाउँनी में लै खूब देखींण-सुणींण फै ग्यीं। अगर म्ये्रि जानकारि सई छ, त कुमाउँनी में हाइकू लेखणै्कि शुरूआत सबुहै पैली ज्ञान पंत ज्यूल अस्सीक दशक में करि हा्ल छी, पछा उनरि किताब ‘कणिक’ नामैल छापिणीं। हाइकू लेखणौ्क प्रयोग नवेंदु ज्यूल लै करि रा्खौ-
‘‘बंण बै बाग/शहर बै मैस्यिोलि/हरै ग्ये आज।’’
आखिर में, मैं नवेंदु कैं उनरि रचनात्मक समाजसेवा क लिजी बधाई दिनूँ। ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ उना्र देखी स्यूँणा कैं पुर करैलि, यौ संग्रह में नवीन जोशि ज्यूल आ्पणि कवितान कैं एकबट्या रा्खौ। मकैं पुर विश्वास छ, उघड़ी आखूँक स्वींण पढ़नियाँकैं नवेंदुकि ज्यूनि, जुन्या्लि रात जसि अङाव हा्लड़ी ला्गलि।
 डॉ. प्रभा पंत,  
एसो. प्रोफेसर, हिन्दी, एम.बी.रा.स्ना.महाविद्यालय,  हल्द्वानी
(कविता संग्रह ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ की भूमिका से उद्धृत)                                                               

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

जनभाषा की कसौटी पर खरी उतरती है ‘नवेंदु’ की कविता


दोस्तो, मेरे पहले कुमाउनी कविता संग्रह ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ पर आप सुधी पाठकों की बेहद उत्साहजनक प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। अनेक साहित्य प्रेमियों ने पुस्तक की प्रतियां चाही हैं। निजी व्यस्तताओं की वजह से सभी को समय पर प्रतियां भेजना संभव नहीं हो पा रहा है, आशा है अन्यथा नहीं लेंगे। वैसे पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल-कंसल बुक डिपो, माल रोड के नारायन्स बुक शॉप और तल्लीताल में सांई बुक डिपो पर उपलब्ध करा दी गई हैं। यहां से भी पुस्तक प्राप्त की जा सकती है। 
: नवीन जोशी ‘नवेंदु’

दामोदर जोशी ‘देवांशु’

पुस्तक पर कुमाउनी के वरिष्ठ साहित्यकार, संपादक दामोदर जोशी ‘देवांशु’ की ओर से शुभकांक्षा के दो शब्द 

‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ नवीन जोशी ‘नवेंदु’ द्वारा आचंलिक भाषा कुमाउनी में लिखा गया काव्य संकलन है। यह कवि का प्रथम कुमाउनी कविता संग्रह है। जो उसके एक स्वप्न की परिणति है। इससे पूर्व कवि की रचनाएँ छिटफट रूप में पत्र-पत्रिकाओं सहित डॉडा कॉठा स्वर ;काव्य संग्रह, ऑखर तथा दुदबोलि आदि में प्रकाशित होकर कुमाउनी साहित्य की थाती बन चुकी हैं।
कवि ‘नवेंदु’ ने स्वयं संघर्षमय अतीत देखा है। जीवन की जटिलताओं-विषमताओं और विद्रूपताओं से वे स्वयं दो-चार होकर आगे बढ़े हैं। भाषा प्रेम बचपन से रहा। आंचलिक भाषा को अपने उद्गम में ही उपेक्षित होते हुए देखा। जब पहाड़ी बोलने वालों को लोग ‘गंवार’ तक कह देने में नहीं चूकते थे। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी कवि ने माता-पिता और समाज रूपी पाठशाला से कुमाउनी भाषा रूपी अमृत को अपने मन के कलश में भर लिया और उसे ही जन कल्याणार्थ व भाषा विकासार्थ लेखनी द्वारा अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
उघड़ी आंखोंक स्वींण’ से तात्पर्य आंखों देखा यथार्थ है। कवि वास्तविकता के धारातल पर विश्वास करता है अतः उसकी कविता में कल्पना की उड़ान नहीं है। फूहड़ हास्य, अतिशयोक्तिपूर्ण अथवा अतिरंजित वर्णनों द्वारा वह वाहवाही नहीं लूटना चाहता। श्रृंगारिक दृश्यों के चित्रण से भी उसको ज्यादा लगाव नहीं है। शब्दों का ढकोसला उसे प्रिय नहीं। अतः उसकी कविता का प्रत्येक शब्द विस्तार लेने की क्षमता रखता है। वह आदर्श का नहीं यथार्थ का पक्षपाती है, और शाश्वत मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। सत-असत की विवेचना किये बिना वह भावना के ज्वार में बहने वाला नहीं है। उसकी भाषा जनभाषा की कसौटी पर खरी उतरती है और जन-जन की समस्याओं को प्रतिबिम्बित करती है। स्पष्ट है उसमें जनभाषा की सहजता, स्वाभाविकता, अल्हड़पन और अनगढ़ता विद्यमान है। 
कवि मानव के द्वारा खुली आंखों से देखे गये स्वप्न को साकार होना देखना चाहता है। इसके लिए वह दृढ़ संकल्प शक्ति, कठोर परिश्रम और अध्यवसाय को ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग करने की युक्ति बताता है। कवि की कविता में आमजन की व्यथा मुखरित होती है जो कवि को जनकवि होने के अभिधान के निकट ला खड़ा करती है। उसकी कविता बायवी न होकर जाग्रत और उतिष्ठित जीवन का सन्देश देती है।
कवि का मानना है कि आज आदमी कहीं खो गया है। इतनी भीड़ में भी वह पहचाना नहीं जा रहा। यहाँ वह नहीं उसकी छाया चल रही है। हिन्दू चल रहा है, मुसलमान चल रहा है, सिक्ख और ईसाई आदि रूपों में उसकी पहचान है। कबीर और गांधाी कहीं दृश्यमान नहीं हो रहे हैं। नवेंदु का संग्रह मनुष्य को मनुष्य बनने का सन्देश देता है। वस्तुतः कविता संग्रह चरम शिखर पर पहुँच गये भ्रष्टाचार, कदाचार प्रदूषण, क्षेत्रवाद और आतंकवाद आदि के विरुद्ध शंखनाद है। कवि आशान्वित है कि यह भेदभाव और जड़ता का कोहरा जल्दी हट छंट जायेगा। सद्बुद्धि का सबेरा जल्दी प्रकट होकर मानव के मोह व स्वार्थ के संसार को अपनी किरणों की तलवार से छिन्न-भिन्न कर देगा। भारत का गौरव फनः लौट आयेगा। भाषा के साथ विलुप्त हो रही अपनी संस्कृति भी फनः फूलने-फलने लगेगी।
नवीन जोशी ‘नवेंदु’ अपनी माटी से जुड़े युवा व उत्साही साहित्यकार हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं का असली स्वर छिपा है। समाज की पहचान छिपी है और छिपी है गरीब, बेरोजगार, भ्रमित, श्रमित वर्ग की पीड़ा की प्रतिध्वनि। साहित्य के नव हस्ताक्षरों के लिए उनका रचना संसार एक दृष्टान्त है। उनकी प्रतिभा सतत् विकसित होती रहे और उनका भविष्य उज्ज्वल हो। इसी शुभकामना के साथ !

                      -दामोदर जोशी ‘देवांशु’ सम्पादक-गद्यांजलि 
(पूर्व प्रधानाचार्य)

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

कुमाउनी का पहला PDF फॉर्मेट में भी उपलब्ध कविता संग्रह "उघड़ी आंखोंक स्वींण"


दोस्तो, मेरे पहले कुमाउनी  कविता संग्रह "उघड़ी आंखोंक स्वींण" का विमोचन गत 24 अक्टूबर को  नैनीताल क्लब के शैले हॉल में 'नैनीताल शरदोत्सव-2013' के तहत उत्तराखंडी कवि सम्मेलन के दौरान किया गया. 
पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल स्थित कंसल बुक डिपो एवं माल रोड स्थित नारायंस में उपलब्ध करा दी गयी है। पुस्तक के बारे में कुमाउनी के मूर्धन्य कवि, लेखक, साहित्यकार व संपादक मथुरा दत्त मठपाल जी का आलेख साभार प्रस्तुत है। 

नवेंदु की कविता: एक नोट

कुमाउनी के युवा कवि नवीन जोशी ‘नवेंदु’ और उनकी कविता से मेरा पिछले अनेक वर्षों से परिचय रहा है। उनकी कविताओं की विषय-वस्तु का स्पान बहुत विस्तृत है, जिसमें दैनिक जीवन की साधारण वस्तुओं से लेकर गहनतम मानवीय अनुभूतियां सम्मिलित हैं। वे बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने में समर्थ हैं।  अनेक स्थानों पर भावों की ऊंची उड़ान भरने पर भी उनकी कविता अपनी सहजता-सरलता का त्याग नहीं करती। वे सरलतम शब्दों में मन के गहनतम भावों को प्रकट करने में समर्थ हैं। उनकी यही सामर्थ्य उन्हें अपनी उम्र से कहीं अधिक तक पेंठ करने वाले एक सशक्त रचनाकार का रूप देती है। वे कोरी लफ्फाजी नहीं करते। वरन, उन्हें जो कुछ कहना होता है, उसे वे ठोक-बजाकर, और अनेक स्थलों पर ताल ठोंक कर भी सरलतम शब्दों में पाठकों के आगे प्रस्तुत कर देते हैं।


मानवों के बीच के आपसी रिश्ते ठंडे पड़ चुके हैं, और हर इन्सान जैसे इन्हीं ठण्डे रिश्तों को अपनी नियति के रूप में स्वीकार कर दुबका हुआ है। अपने बाहर वह एक सुरक्षा खोल सा ओढ़ कर दुबका हुआ है, और इसी में वह अपनी सुरक्षा समझ रहा है।म्येसी गईं मैंस/ बारमासी / अरड़ी रिश्त-नातना्क अरड़ में/ इकलै बिराउक चार/ चुला्क गल्यूटन में लै - अरड़
मानव केवल स्वप्न बुन रहा है। करने का सामर्थ्य होते हुए भी वह एक विचित्र  प्रकार की तामसिक वृत्ति से घिरा है।

आफी बांदी खुद खोलंण, दुसरों कें चांणईं/ बिन के पकाइयै, लगड़-पुरि चांणई । - सब्बै अगाश हुं जांणईं समय बहुत बलवान है। समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। लड़ाई भी। शत्रु पक्ष बदल जाता है, लड़ाई का कारण, उसकी तकनीक, उसका उद्देश्य सब कुछ बदल जाता है-



लड़ैं- बेई तलक छी बिदेशियों दगै / आज छु पड़ोसियों दगै / भो हुं ह्वेलि घर भितेरियों दगै। कवि के पास एक उत्कृष्ट जिजीविषा है, जिसके दर्शन हमें उसकी अनेक कविताओं में होते हैं। उसका मानना है कि घोर संकट के क्षणों में भी हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए- पर एक चीज/ जो कदिनै लै/ न निमड़णि चैनि/ जो रूंण चैं/ हमेशा जिंदि/ उ छू-उमींद/ किलै की-/ जतू सांचि छू/ रात हुंण/ उतुकै सांचि छू/ रात ब्यांण लै। - उमींद                                                     ‘सिणुक’ शीर्षक कविता में कवि एक सिणुक (तिनके) के भी अति शक्तिशाली हो सकने के तथ्य को रेखांकित करता है-  जो् कान/ सच्चाइ न सुणन/ फोड़ि सकूं/ जो आं्ख/ बरोबर न देखन/ खोचि सकूं/ जो दाड़/ भलि बात न बुलान/ उं दाड़न ल्वयै सकूं।                                                           मानवीय सामर्थ्य के बौनेपन का अहसास कराने वाली कविता ‘ज्यूंनि’, जिसमें गजल की रवानी है-मुझे बहुत अच्छी लगी-कूंणा्क तैं ज्यूनि, ज्यूं हर आदिम।/ सांचि कौ कूंछा-ज्यूनि बोकण जस लागूं/ उ ठेठर जो डाड़ मारि बेर सबूं कैं हंसूं / म्या्र आंखा्क पांणि में वी आदिम जस लागूं।
समाज का एक बड़ा वर्ग सर्वहारा वर्ग का है। वह एक तिनके की तरह कमजोर-निरीह-अल्पसंतोषी, आत्मसंतोषी है-


तिनाड़न कैं कि चैं ?/ के खास धर्ति नैं/ के खास अगास नैं/ के मिलौ/ नि मिलौ/ उं रूनीं ज्यून/ किलै, कसी ?/ बांणि पड़ि ग्येईं ज्यून रूंणा्क -तिना्ड़
‘भैम’ कविता में कवि का संदेश बहुत स्पष्ट है। दशहरे में फूंका जाने वाला रावण तो मात्र एक बहम है। फूंक सकते हो तो-
मेरि मानछा/ न बणाओ/ न भड़़्याओ मरी रावण/ जब ठुल-ठुल रावण छन जिन्द दुनी में/ करि सकछा/ उनन कें धरो चौबटी में/ उनूं कैं भड़्याओ/ खाल्लि/ भैम  भड़्यै बेर कि फैद ?
मनुष्य को मुंह तो खोलना ही होगा। आपाधापी और अनिश्चितता की आज की परिस्थितियों में यह और भी अध्कि आवश्यक हो चला है। ‘कओ’ कविता में कवि आह्वाहन करता है-
कओ,/ जोर-जोरैल कओ/ जि लै कूंण छू/ पुर मनचितैल कओ/ तुमि चुप न रओ/ निडर-निझरक है बेर/ अपण-पर्या भुलि बेर/ पुर जोरैल/ हकाहाक करो। 
आशा का स्वर- 
ह्वल उज्या्व, अर ए दिन जरूड़ै ह्वल/ मिं जानूं-तैसि न सकीणी क्वे रातै न्हें -हमा्र गौं में
‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ कविता, जिस पर इस काव्य संकलन को नाम दिया गया है, आशावाद की एक श्रेष्ठ कविता है, इसकी एक अन्तिका देखैं-
छजूणईं ईजा्क थान कैं/ बाबुक पूर्व जनमा्क दान कैं/ झाड़णईं झाड़/ छांटणईं गर्द/ समावणईं पुरुखनैकि था्ति/ चढ़ूणईं फूल-पाति/ दिणईं आपणि बइ/ हरण हुं दुसरोंकि टीस-पीड़/ राता्क धुप्प अन्या्र में/ मिं लै देखणयूं-उघड़ी आंखोंक स्वींण।
जीवन क्या है ? विषम परिस्थितियों में भी जी जाना ही तो-
चिफा्व सिमार बा्ट में लै, दौड़ छु ज्यूनि - ज्यूनि
फिरि लै-/ जि ऊंणईं आं्स त/ समा्इ बेर धरि ल्हिओ/ कभतै कत्ती/ हंसि आली अत्ती/ काम आल - डाड़ मारणैल
कवि ने छन्द-मुक्त कविता, गीत, गजल, क्षणिकायें, हाइकू आदि विविध रचना -शैलियों पर सार्थक रूप से अपनी लेखनी चलाई है। अनेक स्थलों पर बिम्बों और प्रतीकों का सहारा लिया है। अनेक अलंकार कवि की रचना में स्वतः आ गए हैं। कवि के पास एक समृद्ध कुमाउनी भाषा है। निम्न शब्द प्रचलन से हटते जा रहे हैं- 
गल्यूट, घ्यामड़, उदंकार, असक, एकमही, अद्बिथर, कट्ठर, कुमर, भुड़, पांजव जैसे ठेठ ग्रामीण कुमाउनी शब्दों का व्यापक और सही स्थान पर प्रयोग हुआ है। अनेक स्थलों पर मुहावरों, लोकोक्तियों का सटीक प्रयोग हुआ है, यथा-किरमोई बर्यात, गुईं जिबा्ड़, ब्याखुलिक स्योव, चोर मार, मरी पितर भात खवै, सतझड़ि करण, आंखन जाव लागण आदि। 
नवेंदु जी को अपनी तरुणावस्था तक अपने बाल्यकाल में नैनी-चौगर्खा (जागेश्वर) क्षेत्र के ग्रामीण परिवेश में रहने का अवसर मिला है। किसी भी भाषा को सीखने के लिए यही सर्वोत्तम आयु होती है। आगे चल कर कपकोट के बाहर भी उनको कुमाउनी परिवेश मिला। उनकी समृद्ध कुमाउनी का यही रहस्य है, जोआज की युवा पीढ़ी में कम ही दिखाई दे रहा है। पिफर घर के भीतर उन्हें अपने रचनाकार पिता का सानिध्य मिलता रहा, जिससे रचनाशीलता के लिए ललक और सामर्थ्य का निरन्तर विकास होता चला गया। उनके पिता श्री दामोदर जोशी ‘देवांशु’ हिंदी और कुमाउनी के एक सशक्त रचनाकार/ कवि हैं। स्वयं के लेखन और प्रकाशन के अतिरिक्त उन्होंन कुमाउनी रचनाधर्मियों के एकांकी, निबंध, कहानी आदि संग्रहों का समय-समय पर सम्पादन/प्रकाशन और कुमाउनी भाषा को आगे बढ़ाने में भारी सहायता की है। मेरी तो यही कामना है है कि नवेंदु जी साहित्य के क्षेत्र में अपने यशस्वी पिता से कहीं आगे निकलें, क्योंकि ‘पुत्रात शिष्यात् पराजयमम्’-यानी पुत्र और शिष्य से तो पराजय की ही कामना करनी चाहिए। अलमतिविस्तरेण। 


 -मथुरा दत्त मठपाल
महाशिवरात्रि पर्व,   सम्पादक-दुदबोलि (कुमाउनी वार्षिक पत्रिका)
10 मार्च 2013 ई.    पम्पापुर, रामनगर, नैनीताल जनपद।


प्रस्तुत कविता संग्रह में प्रदेश की लोक संस्कृति, सामाजिक सरोकारों, जीवन दर्शन, राजनीतिक प्रदूषण के साथ ही प्राकृतिक बिंबों को प्रदर्शित करती एवं वर्तमान हालातों की विषमताओं व विद्रूपताओं के बावजूद सकारात्मक सोच से आगे बढ़ने का संदेश देने वाली 114 कुमाउनीं कविताएं संग्रहीत हैं। इनमें तुकांत, लयबद्ध, गीत, गजल एवं आधुनिक जापानी हाइकू शैली की कविताएं भी शामिल हैं। दैनिक जीवन के बहुत छोटे तिनाड़ (तिनके), ढुड. (पत्थर), चिनांड़ (चिन्ह), सिंड़ुक (सींक), म्यर कुड़ (मेरा घर), अरड़ (ठंडा), रींड़ (ऋण) बुड़ बोट (बूढ़ा पेड़), बा्टक कुड़ (रास्ते का घर) व गाड़िकि रोड जैसे बिंबों के साथ ही राजअनीति, पहाड़ाक हाड़, इतिहास, पछ्याण (पहचान), बखत (समय), ज्यूनि अर मौत (जिंदगी और मौत), पनर अगस्ता्क दिन तथा घुम्तून हुं (पर्यटकों से अपील), बाग ऐगो, इंटरभ्यू में, गाड़ ऐ रै, हमा्र गौं में, परदेश जै बेर व मिं रूढ़िवादी भल (मैं रूंढ़िवादी ही ठीक) जैसी कविताएं मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों विषयों पर कटाक्ष करने के साथ ही इनसे उठने वाले सवाल उठाने के साथ उनके जवाब भी देती नजर आती है। साथ ही गहरे अंधेरे के बाद अवश्यमेव उजाला होने का विश्वास भी जगाती है।

पृष्ठ संख्या: 160, कुल कवितायेँ: 114, मूल्य पुस्तक: रुपए 250, मूल्य : PDF फॉर्मेट रुपये 150। 

पुस्तक P.D.F. फोर्मेट में रूपए 150 में (S.B.I. नैनीताल के खाता संख्या 30972689284 में जमाकर) ई-मेल से भी मंगाई जा सकती है।

प्रकाशक: जगदम्बा कम्प्यूटर्स एंड ग्राफ़िक्स, हल्द्वानी (नैनीताल), उत्तराखंड। 

दोस्तो,
मेरी  चुनिन्दा कुमाउनी कवितायें मेरे ब्लॉग 'ऊंचे पहाड़ों से.… जीवन के स्वर' के लिंक को क्लिक कर के देख सकते हैं। . 

बधाइयों, शुभकामनाओं एवं आशीर्वाद के लिए सभी मित्रों / अग्रजों का धन्यवाद, आभार, सुविधा के लिए पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल स्थित कंसल बुक डिपो एवं माल रोड स्थित नारायंस में उपलब्ध करा दी गयी है। 


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