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गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

जनभाषा की कसौटी पर खरी उतरती है ‘नवेंदु’ की कविता


दोस्तो, मेरे पहले कुमाउनी कविता संग्रह ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ पर आप सुधी पाठकों की बेहद उत्साहजनक प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। अनेक साहित्य प्रेमियों ने पुस्तक की प्रतियां चाही हैं। निजी व्यस्तताओं की वजह से सभी को समय पर प्रतियां भेजना संभव नहीं हो पा रहा है, आशा है अन्यथा नहीं लेंगे। वैसे पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल-कंसल बुक डिपो, माल रोड के नारायन्स बुक शॉप और तल्लीताल में सांई बुक डिपो पर उपलब्ध करा दी गई हैं। यहां से भी पुस्तक प्राप्त की जा सकती है। 
: नवीन जोशी ‘नवेंदु’

दामोदर जोशी ‘देवांशु’

पुस्तक पर कुमाउनी के वरिष्ठ साहित्यकार, संपादक दामोदर जोशी ‘देवांशु’ की ओर से शुभकांक्षा के दो शब्द 

‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ नवीन जोशी ‘नवेंदु’ द्वारा आचंलिक भाषा कुमाउनी में लिखा गया काव्य संकलन है। यह कवि का प्रथम कुमाउनी कविता संग्रह है। जो उसके एक स्वप्न की परिणति है। इससे पूर्व कवि की रचनाएँ छिटफट रूप में पत्र-पत्रिकाओं सहित डॉडा कॉठा स्वर ;काव्य संग्रह, ऑखर तथा दुदबोलि आदि में प्रकाशित होकर कुमाउनी साहित्य की थाती बन चुकी हैं।
कवि ‘नवेंदु’ ने स्वयं संघर्षमय अतीत देखा है। जीवन की जटिलताओं-विषमताओं और विद्रूपताओं से वे स्वयं दो-चार होकर आगे बढ़े हैं। भाषा प्रेम बचपन से रहा। आंचलिक भाषा को अपने उद्गम में ही उपेक्षित होते हुए देखा। जब पहाड़ी बोलने वालों को लोग ‘गंवार’ तक कह देने में नहीं चूकते थे। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी कवि ने माता-पिता और समाज रूपी पाठशाला से कुमाउनी भाषा रूपी अमृत को अपने मन के कलश में भर लिया और उसे ही जन कल्याणार्थ व भाषा विकासार्थ लेखनी द्वारा अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
उघड़ी आंखोंक स्वींण’ से तात्पर्य आंखों देखा यथार्थ है। कवि वास्तविकता के धारातल पर विश्वास करता है अतः उसकी कविता में कल्पना की उड़ान नहीं है। फूहड़ हास्य, अतिशयोक्तिपूर्ण अथवा अतिरंजित वर्णनों द्वारा वह वाहवाही नहीं लूटना चाहता। श्रृंगारिक दृश्यों के चित्रण से भी उसको ज्यादा लगाव नहीं है। शब्दों का ढकोसला उसे प्रिय नहीं। अतः उसकी कविता का प्रत्येक शब्द विस्तार लेने की क्षमता रखता है। वह आदर्श का नहीं यथार्थ का पक्षपाती है, और शाश्वत मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। सत-असत की विवेचना किये बिना वह भावना के ज्वार में बहने वाला नहीं है। उसकी भाषा जनभाषा की कसौटी पर खरी उतरती है और जन-जन की समस्याओं को प्रतिबिम्बित करती है। स्पष्ट है उसमें जनभाषा की सहजता, स्वाभाविकता, अल्हड़पन और अनगढ़ता विद्यमान है। 
कवि मानव के द्वारा खुली आंखों से देखे गये स्वप्न को साकार होना देखना चाहता है। इसके लिए वह दृढ़ संकल्प शक्ति, कठोर परिश्रम और अध्यवसाय को ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग करने की युक्ति बताता है। कवि की कविता में आमजन की व्यथा मुखरित होती है जो कवि को जनकवि होने के अभिधान के निकट ला खड़ा करती है। उसकी कविता बायवी न होकर जाग्रत और उतिष्ठित जीवन का सन्देश देती है।
कवि का मानना है कि आज आदमी कहीं खो गया है। इतनी भीड़ में भी वह पहचाना नहीं जा रहा। यहाँ वह नहीं उसकी छाया चल रही है। हिन्दू चल रहा है, मुसलमान चल रहा है, सिक्ख और ईसाई आदि रूपों में उसकी पहचान है। कबीर और गांधाी कहीं दृश्यमान नहीं हो रहे हैं। नवेंदु का संग्रह मनुष्य को मनुष्य बनने का सन्देश देता है। वस्तुतः कविता संग्रह चरम शिखर पर पहुँच गये भ्रष्टाचार, कदाचार प्रदूषण, क्षेत्रवाद और आतंकवाद आदि के विरुद्ध शंखनाद है। कवि आशान्वित है कि यह भेदभाव और जड़ता का कोहरा जल्दी हट छंट जायेगा। सद्बुद्धि का सबेरा जल्दी प्रकट होकर मानव के मोह व स्वार्थ के संसार को अपनी किरणों की तलवार से छिन्न-भिन्न कर देगा। भारत का गौरव फनः लौट आयेगा। भाषा के साथ विलुप्त हो रही अपनी संस्कृति भी फनः फूलने-फलने लगेगी।
नवीन जोशी ‘नवेंदु’ अपनी माटी से जुड़े युवा व उत्साही साहित्यकार हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं का असली स्वर छिपा है। समाज की पहचान छिपी है और छिपी है गरीब, बेरोजगार, भ्रमित, श्रमित वर्ग की पीड़ा की प्रतिध्वनि। साहित्य के नव हस्ताक्षरों के लिए उनका रचना संसार एक दृष्टान्त है। उनकी प्रतिभा सतत् विकसित होती रहे और उनका भविष्य उज्ज्वल हो। इसी शुभकामना के साथ !

                      -दामोदर जोशी ‘देवांशु’ सम्पादक-गद्यांजलि 
(पूर्व प्रधानाचार्य)