रविवार, 27 अक्तूबर 2013

कुमाउनी का पहला PDF फॉर्मेट में भी उपलब्ध कविता संग्रह "उघड़ी आंखोंक स्वींण"


दोस्तो, मेरे पहले कुमाउनी  कविता संग्रह "उघड़ी आंखोंक स्वींण" का विमोचन गत 24 अक्टूबर को  नैनीताल क्लब के शैले हॉल में 'नैनीताल शरदोत्सव-2013' के तहत उत्तराखंडी कवि सम्मेलन के दौरान किया गया. 
पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल स्थित कंसल बुक डिपो एवं माल रोड स्थित नारायंस में उपलब्ध करा दी गयी है। पुस्तक के बारे में कुमाउनी के मूर्धन्य कवि, लेखक, साहित्यकार व संपादक मथुरा दत्त मठपाल जी का आलेख साभार प्रस्तुत है। 

नवेंदु की कविता: एक नोट

कुमाउनी के युवा कवि नवीन जोशी ‘नवेंदु’ और उनकी कविता से मेरा पिछले अनेक वर्षों से परिचय रहा है। उनकी कविताओं की विषय-वस्तु का स्पान बहुत विस्तृत है, जिसमें दैनिक जीवन की साधारण वस्तुओं से लेकर गहनतम मानवीय अनुभूतियां सम्मिलित हैं। वे बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने में समर्थ हैं।  अनेक स्थानों पर भावों की ऊंची उड़ान भरने पर भी उनकी कविता अपनी सहजता-सरलता का त्याग नहीं करती। वे सरलतम शब्दों में मन के गहनतम भावों को प्रकट करने में समर्थ हैं। उनकी यही सामर्थ्य उन्हें अपनी उम्र से कहीं अधिक तक पेंठ करने वाले एक सशक्त रचनाकार का रूप देती है। वे कोरी लफ्फाजी नहीं करते। वरन, उन्हें जो कुछ कहना होता है, उसे वे ठोक-बजाकर, और अनेक स्थलों पर ताल ठोंक कर भी सरलतम शब्दों में पाठकों के आगे प्रस्तुत कर देते हैं।


मानवों के बीच के आपसी रिश्ते ठंडे पड़ चुके हैं, और हर इन्सान जैसे इन्हीं ठण्डे रिश्तों को अपनी नियति के रूप में स्वीकार कर दुबका हुआ है। अपने बाहर वह एक सुरक्षा खोल सा ओढ़ कर दुबका हुआ है, और इसी में वह अपनी सुरक्षा समझ रहा है।म्येसी गईं मैंस/ बारमासी / अरड़ी रिश्त-नातना्क अरड़ में/ इकलै बिराउक चार/ चुला्क गल्यूटन में लै - अरड़
मानव केवल स्वप्न बुन रहा है। करने का सामर्थ्य होते हुए भी वह एक विचित्र  प्रकार की तामसिक वृत्ति से घिरा है।

आफी बांदी खुद खोलंण, दुसरों कें चांणईं/ बिन के पकाइयै, लगड़-पुरि चांणई । - सब्बै अगाश हुं जांणईं समय बहुत बलवान है। समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। लड़ाई भी। शत्रु पक्ष बदल जाता है, लड़ाई का कारण, उसकी तकनीक, उसका उद्देश्य सब कुछ बदल जाता है-



लड़ैं- बेई तलक छी बिदेशियों दगै / आज छु पड़ोसियों दगै / भो हुं ह्वेलि घर भितेरियों दगै। कवि के पास एक उत्कृष्ट जिजीविषा है, जिसके दर्शन हमें उसकी अनेक कविताओं में होते हैं। उसका मानना है कि घोर संकट के क्षणों में भी हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए- पर एक चीज/ जो कदिनै लै/ न निमड़णि चैनि/ जो रूंण चैं/ हमेशा जिंदि/ उ छू-उमींद/ किलै की-/ जतू सांचि छू/ रात हुंण/ उतुकै सांचि छू/ रात ब्यांण लै। - उमींद                                                     ‘सिणुक’ शीर्षक कविता में कवि एक सिणुक (तिनके) के भी अति शक्तिशाली हो सकने के तथ्य को रेखांकित करता है-  जो् कान/ सच्चाइ न सुणन/ फोड़ि सकूं/ जो आं्ख/ बरोबर न देखन/ खोचि सकूं/ जो दाड़/ भलि बात न बुलान/ उं दाड़न ल्वयै सकूं।                                                           मानवीय सामर्थ्य के बौनेपन का अहसास कराने वाली कविता ‘ज्यूंनि’, जिसमें गजल की रवानी है-मुझे बहुत अच्छी लगी-कूंणा्क तैं ज्यूनि, ज्यूं हर आदिम।/ सांचि कौ कूंछा-ज्यूनि बोकण जस लागूं/ उ ठेठर जो डाड़ मारि बेर सबूं कैं हंसूं / म्या्र आंखा्क पांणि में वी आदिम जस लागूं।
समाज का एक बड़ा वर्ग सर्वहारा वर्ग का है। वह एक तिनके की तरह कमजोर-निरीह-अल्पसंतोषी, आत्मसंतोषी है-


तिनाड़न कैं कि चैं ?/ के खास धर्ति नैं/ के खास अगास नैं/ के मिलौ/ नि मिलौ/ उं रूनीं ज्यून/ किलै, कसी ?/ बांणि पड़ि ग्येईं ज्यून रूंणा्क -तिना्ड़
‘भैम’ कविता में कवि का संदेश बहुत स्पष्ट है। दशहरे में फूंका जाने वाला रावण तो मात्र एक बहम है। फूंक सकते हो तो-
मेरि मानछा/ न बणाओ/ न भड़़्याओ मरी रावण/ जब ठुल-ठुल रावण छन जिन्द दुनी में/ करि सकछा/ उनन कें धरो चौबटी में/ उनूं कैं भड़्याओ/ खाल्लि/ भैम  भड़्यै बेर कि फैद ?
मनुष्य को मुंह तो खोलना ही होगा। आपाधापी और अनिश्चितता की आज की परिस्थितियों में यह और भी अध्कि आवश्यक हो चला है। ‘कओ’ कविता में कवि आह्वाहन करता है-
कओ,/ जोर-जोरैल कओ/ जि लै कूंण छू/ पुर मनचितैल कओ/ तुमि चुप न रओ/ निडर-निझरक है बेर/ अपण-पर्या भुलि बेर/ पुर जोरैल/ हकाहाक करो। 
आशा का स्वर- 
ह्वल उज्या्व, अर ए दिन जरूड़ै ह्वल/ मिं जानूं-तैसि न सकीणी क्वे रातै न्हें -हमा्र गौं में
‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ कविता, जिस पर इस काव्य संकलन को नाम दिया गया है, आशावाद की एक श्रेष्ठ कविता है, इसकी एक अन्तिका देखैं-
छजूणईं ईजा्क थान कैं/ बाबुक पूर्व जनमा्क दान कैं/ झाड़णईं झाड़/ छांटणईं गर्द/ समावणईं पुरुखनैकि था्ति/ चढ़ूणईं फूल-पाति/ दिणईं आपणि बइ/ हरण हुं दुसरोंकि टीस-पीड़/ राता्क धुप्प अन्या्र में/ मिं लै देखणयूं-उघड़ी आंखोंक स्वींण।
जीवन क्या है ? विषम परिस्थितियों में भी जी जाना ही तो-
चिफा्व सिमार बा्ट में लै, दौड़ छु ज्यूनि - ज्यूनि
फिरि लै-/ जि ऊंणईं आं्स त/ समा्इ बेर धरि ल्हिओ/ कभतै कत्ती/ हंसि आली अत्ती/ काम आल - डाड़ मारणैल
कवि ने छन्द-मुक्त कविता, गीत, गजल, क्षणिकायें, हाइकू आदि विविध रचना -शैलियों पर सार्थक रूप से अपनी लेखनी चलाई है। अनेक स्थलों पर बिम्बों और प्रतीकों का सहारा लिया है। अनेक अलंकार कवि की रचना में स्वतः आ गए हैं। कवि के पास एक समृद्ध कुमाउनी भाषा है। निम्न शब्द प्रचलन से हटते जा रहे हैं- 
गल्यूट, घ्यामड़, उदंकार, असक, एकमही, अद्बिथर, कट्ठर, कुमर, भुड़, पांजव जैसे ठेठ ग्रामीण कुमाउनी शब्दों का व्यापक और सही स्थान पर प्रयोग हुआ है। अनेक स्थलों पर मुहावरों, लोकोक्तियों का सटीक प्रयोग हुआ है, यथा-किरमोई बर्यात, गुईं जिबा्ड़, ब्याखुलिक स्योव, चोर मार, मरी पितर भात खवै, सतझड़ि करण, आंखन जाव लागण आदि। 
नवेंदु जी को अपनी तरुणावस्था तक अपने बाल्यकाल में नैनी-चौगर्खा (जागेश्वर) क्षेत्र के ग्रामीण परिवेश में रहने का अवसर मिला है। किसी भी भाषा को सीखने के लिए यही सर्वोत्तम आयु होती है। आगे चल कर कपकोट के बाहर भी उनको कुमाउनी परिवेश मिला। उनकी समृद्ध कुमाउनी का यही रहस्य है, जोआज की युवा पीढ़ी में कम ही दिखाई दे रहा है। पिफर घर के भीतर उन्हें अपने रचनाकार पिता का सानिध्य मिलता रहा, जिससे रचनाशीलता के लिए ललक और सामर्थ्य का निरन्तर विकास होता चला गया। उनके पिता श्री दामोदर जोशी ‘देवांशु’ हिंदी और कुमाउनी के एक सशक्त रचनाकार/ कवि हैं। स्वयं के लेखन और प्रकाशन के अतिरिक्त उन्होंन कुमाउनी रचनाधर्मियों के एकांकी, निबंध, कहानी आदि संग्रहों का समय-समय पर सम्पादन/प्रकाशन और कुमाउनी भाषा को आगे बढ़ाने में भारी सहायता की है। मेरी तो यही कामना है है कि नवेंदु जी साहित्य के क्षेत्र में अपने यशस्वी पिता से कहीं आगे निकलें, क्योंकि ‘पुत्रात शिष्यात् पराजयमम्’-यानी पुत्र और शिष्य से तो पराजय की ही कामना करनी चाहिए। अलमतिविस्तरेण। 


 -मथुरा दत्त मठपाल
महाशिवरात्रि पर्व,   सम्पादक-दुदबोलि (कुमाउनी वार्षिक पत्रिका)
10 मार्च 2013 ई.    पम्पापुर, रामनगर, नैनीताल जनपद।


प्रस्तुत कविता संग्रह में प्रदेश की लोक संस्कृति, सामाजिक सरोकारों, जीवन दर्शन, राजनीतिक प्रदूषण के साथ ही प्राकृतिक बिंबों को प्रदर्शित करती एवं वर्तमान हालातों की विषमताओं व विद्रूपताओं के बावजूद सकारात्मक सोच से आगे बढ़ने का संदेश देने वाली 114 कुमाउनीं कविताएं संग्रहीत हैं। इनमें तुकांत, लयबद्ध, गीत, गजल एवं आधुनिक जापानी हाइकू शैली की कविताएं भी शामिल हैं। दैनिक जीवन के बहुत छोटे तिनाड़ (तिनके), ढुड. (पत्थर), चिनांड़ (चिन्ह), सिंड़ुक (सींक), म्यर कुड़ (मेरा घर), अरड़ (ठंडा), रींड़ (ऋण) बुड़ बोट (बूढ़ा पेड़), बा्टक कुड़ (रास्ते का घर) व गाड़िकि रोड जैसे बिंबों के साथ ही राजअनीति, पहाड़ाक हाड़, इतिहास, पछ्याण (पहचान), बखत (समय), ज्यूनि अर मौत (जिंदगी और मौत), पनर अगस्ता्क दिन तथा घुम्तून हुं (पर्यटकों से अपील), बाग ऐगो, इंटरभ्यू में, गाड़ ऐ रै, हमा्र गौं में, परदेश जै बेर व मिं रूढ़िवादी भल (मैं रूंढ़िवादी ही ठीक) जैसी कविताएं मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों विषयों पर कटाक्ष करने के साथ ही इनसे उठने वाले सवाल उठाने के साथ उनके जवाब भी देती नजर आती है। साथ ही गहरे अंधेरे के बाद अवश्यमेव उजाला होने का विश्वास भी जगाती है।

पृष्ठ संख्या: 160, कुल कवितायेँ: 114, मूल्य पुस्तक: रुपए 250, मूल्य : PDF फॉर्मेट रुपये 150। 

पुस्तक P.D.F. फोर्मेट में रूपए 150 में (S.B.I. नैनीताल के खाता संख्या 30972689284 में जमाकर) ई-मेल से भी मंगाई जा सकती है।

प्रकाशक: जगदम्बा कम्प्यूटर्स एंड ग्राफ़िक्स, हल्द्वानी (नैनीताल), उत्तराखंड। 

दोस्तो,
मेरी  चुनिन्दा कुमाउनी कवितायें मेरे ब्लॉग 'ऊंचे पहाड़ों से.… जीवन के स्वर' के लिंक को क्लिक कर के देख सकते हैं। . 

बधाइयों, शुभकामनाओं एवं आशीर्वाद के लिए सभी मित्रों / अग्रजों का धन्यवाद, आभार, सुविधा के लिए पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल स्थित कंसल बुक डिपो एवं माल रोड स्थित नारायंस में उपलब्ध करा दी गयी है। 


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