गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

जनभाषा की कसौटी पर खरी उतरती है ‘नवेंदु’ की कविता


दोस्तो, मेरे पहले कुमाउनी कविता संग्रह ‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ पर आप सुधी पाठकों की बेहद उत्साहजनक प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं। अनेक साहित्य प्रेमियों ने पुस्तक की प्रतियां चाही हैं। निजी व्यस्तताओं की वजह से सभी को समय पर प्रतियां भेजना संभव नहीं हो पा रहा है, आशा है अन्यथा नहीं लेंगे। वैसे पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल-कंसल बुक डिपो, माल रोड के नारायन्स बुक शॉप और तल्लीताल में सांई बुक डिपो पर उपलब्ध करा दी गई हैं। यहां से भी पुस्तक प्राप्त की जा सकती है। 
: नवीन जोशी ‘नवेंदु’

दामोदर जोशी ‘देवांशु’

पुस्तक पर कुमाउनी के वरिष्ठ साहित्यकार, संपादक दामोदर जोशी ‘देवांशु’ की ओर से शुभकांक्षा के दो शब्द 

‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ नवीन जोशी ‘नवेंदु’ द्वारा आचंलिक भाषा कुमाउनी में लिखा गया काव्य संकलन है। यह कवि का प्रथम कुमाउनी कविता संग्रह है। जो उसके एक स्वप्न की परिणति है। इससे पूर्व कवि की रचनाएँ छिटफट रूप में पत्र-पत्रिकाओं सहित डॉडा कॉठा स्वर ;काव्य संग्रह, ऑखर तथा दुदबोलि आदि में प्रकाशित होकर कुमाउनी साहित्य की थाती बन चुकी हैं।
कवि ‘नवेंदु’ ने स्वयं संघर्षमय अतीत देखा है। जीवन की जटिलताओं-विषमताओं और विद्रूपताओं से वे स्वयं दो-चार होकर आगे बढ़े हैं। भाषा प्रेम बचपन से रहा। आंचलिक भाषा को अपने उद्गम में ही उपेक्षित होते हुए देखा। जब पहाड़ी बोलने वालों को लोग ‘गंवार’ तक कह देने में नहीं चूकते थे। ऐसी विपरीत परिस्थिति में भी कवि ने माता-पिता और समाज रूपी पाठशाला से कुमाउनी भाषा रूपी अमृत को अपने मन के कलश में भर लिया और उसे ही जन कल्याणार्थ व भाषा विकासार्थ लेखनी द्वारा अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया।
उघड़ी आंखोंक स्वींण’ से तात्पर्य आंखों देखा यथार्थ है। कवि वास्तविकता के धारातल पर विश्वास करता है अतः उसकी कविता में कल्पना की उड़ान नहीं है। फूहड़ हास्य, अतिशयोक्तिपूर्ण अथवा अतिरंजित वर्णनों द्वारा वह वाहवाही नहीं लूटना चाहता। श्रृंगारिक दृश्यों के चित्रण से भी उसको ज्यादा लगाव नहीं है। शब्दों का ढकोसला उसे प्रिय नहीं। अतः उसकी कविता का प्रत्येक शब्द विस्तार लेने की क्षमता रखता है। वह आदर्श का नहीं यथार्थ का पक्षपाती है, और शाश्वत मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध है। सत-असत की विवेचना किये बिना वह भावना के ज्वार में बहने वाला नहीं है। उसकी भाषा जनभाषा की कसौटी पर खरी उतरती है और जन-जन की समस्याओं को प्रतिबिम्बित करती है। स्पष्ट है उसमें जनभाषा की सहजता, स्वाभाविकता, अल्हड़पन और अनगढ़ता विद्यमान है। 
कवि मानव के द्वारा खुली आंखों से देखे गये स्वप्न को साकार होना देखना चाहता है। इसके लिए वह दृढ़ संकल्प शक्ति, कठोर परिश्रम और अध्यवसाय को ब्रह्मास्त्र के रूप में प्रयोग करने की युक्ति बताता है। कवि की कविता में आमजन की व्यथा मुखरित होती है जो कवि को जनकवि होने के अभिधान के निकट ला खड़ा करती है। उसकी कविता बायवी न होकर जाग्रत और उतिष्ठित जीवन का सन्देश देती है।
कवि का मानना है कि आज आदमी कहीं खो गया है। इतनी भीड़ में भी वह पहचाना नहीं जा रहा। यहाँ वह नहीं उसकी छाया चल रही है। हिन्दू चल रहा है, मुसलमान चल रहा है, सिक्ख और ईसाई आदि रूपों में उसकी पहचान है। कबीर और गांधाी कहीं दृश्यमान नहीं हो रहे हैं। नवेंदु का संग्रह मनुष्य को मनुष्य बनने का सन्देश देता है। वस्तुतः कविता संग्रह चरम शिखर पर पहुँच गये भ्रष्टाचार, कदाचार प्रदूषण, क्षेत्रवाद और आतंकवाद आदि के विरुद्ध शंखनाद है। कवि आशान्वित है कि यह भेदभाव और जड़ता का कोहरा जल्दी हट छंट जायेगा। सद्बुद्धि का सबेरा जल्दी प्रकट होकर मानव के मोह व स्वार्थ के संसार को अपनी किरणों की तलवार से छिन्न-भिन्न कर देगा। भारत का गौरव फनः लौट आयेगा। भाषा के साथ विलुप्त हो रही अपनी संस्कृति भी फनः फूलने-फलने लगेगी।
नवीन जोशी ‘नवेंदु’ अपनी माटी से जुड़े युवा व उत्साही साहित्यकार हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाओं का असली स्वर छिपा है। समाज की पहचान छिपी है और छिपी है गरीब, बेरोजगार, भ्रमित, श्रमित वर्ग की पीड़ा की प्रतिध्वनि। साहित्य के नव हस्ताक्षरों के लिए उनका रचना संसार एक दृष्टान्त है। उनकी प्रतिभा सतत् विकसित होती रहे और उनका भविष्य उज्ज्वल हो। इसी शुभकामना के साथ !

                      -दामोदर जोशी ‘देवांशु’ सम्पादक-गद्यांजलि 
(पूर्व प्रधानाचार्य)

रविवार, 27 अक्तूबर 2013

कुमाउनी का पहला PDF फॉर्मेट में भी उपलब्ध कविता संग्रह "उघड़ी आंखोंक स्वींण"


दोस्तो, मेरे पहले कुमाउनी  कविता संग्रह "उघड़ी आंखोंक स्वींण" का विमोचन गत 24 अक्टूबर को  नैनीताल क्लब के शैले हॉल में 'नैनीताल शरदोत्सव-2013' के तहत उत्तराखंडी कवि सम्मेलन के दौरान किया गया. 
पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल स्थित कंसल बुक डिपो एवं माल रोड स्थित नारायंस में उपलब्ध करा दी गयी है। पुस्तक के बारे में कुमाउनी के मूर्धन्य कवि, लेखक, साहित्यकार व संपादक मथुरा दत्त मठपाल जी का आलेख साभार प्रस्तुत है। 

नवेंदु की कविता: एक नोट

कुमाउनी के युवा कवि नवीन जोशी ‘नवेंदु’ और उनकी कविता से मेरा पिछले अनेक वर्षों से परिचय रहा है। उनकी कविताओं की विषय-वस्तु का स्पान बहुत विस्तृत है, जिसमें दैनिक जीवन की साधारण वस्तुओं से लेकर गहनतम मानवीय अनुभूतियां सम्मिलित हैं। वे बिना लाग-लपेट के अपनी बात कहने में समर्थ हैं।  अनेक स्थानों पर भावों की ऊंची उड़ान भरने पर भी उनकी कविता अपनी सहजता-सरलता का त्याग नहीं करती। वे सरलतम शब्दों में मन के गहनतम भावों को प्रकट करने में समर्थ हैं। उनकी यही सामर्थ्य उन्हें अपनी उम्र से कहीं अधिक तक पेंठ करने वाले एक सशक्त रचनाकार का रूप देती है। वे कोरी लफ्फाजी नहीं करते। वरन, उन्हें जो कुछ कहना होता है, उसे वे ठोक-बजाकर, और अनेक स्थलों पर ताल ठोंक कर भी सरलतम शब्दों में पाठकों के आगे प्रस्तुत कर देते हैं।


मानवों के बीच के आपसी रिश्ते ठंडे पड़ चुके हैं, और हर इन्सान जैसे इन्हीं ठण्डे रिश्तों को अपनी नियति के रूप में स्वीकार कर दुबका हुआ है। अपने बाहर वह एक सुरक्षा खोल सा ओढ़ कर दुबका हुआ है, और इसी में वह अपनी सुरक्षा समझ रहा है।म्येसी गईं मैंस/ बारमासी / अरड़ी रिश्त-नातना्क अरड़ में/ इकलै बिराउक चार/ चुला्क गल्यूटन में लै - अरड़
मानव केवल स्वप्न बुन रहा है। करने का सामर्थ्य होते हुए भी वह एक विचित्र  प्रकार की तामसिक वृत्ति से घिरा है।

आफी बांदी खुद खोलंण, दुसरों कें चांणईं/ बिन के पकाइयै, लगड़-पुरि चांणई । - सब्बै अगाश हुं जांणईं समय बहुत बलवान है। समय के साथ बहुत कुछ बदल जाता है। लड़ाई भी। शत्रु पक्ष बदल जाता है, लड़ाई का कारण, उसकी तकनीक, उसका उद्देश्य सब कुछ बदल जाता है-



लड़ैं- बेई तलक छी बिदेशियों दगै / आज छु पड़ोसियों दगै / भो हुं ह्वेलि घर भितेरियों दगै। कवि के पास एक उत्कृष्ट जिजीविषा है, जिसके दर्शन हमें उसकी अनेक कविताओं में होते हैं। उसका मानना है कि घोर संकट के क्षणों में भी हमें उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए- पर एक चीज/ जो कदिनै लै/ न निमड़णि चैनि/ जो रूंण चैं/ हमेशा जिंदि/ उ छू-उमींद/ किलै की-/ जतू सांचि छू/ रात हुंण/ उतुकै सांचि छू/ रात ब्यांण लै। - उमींद                                                     ‘सिणुक’ शीर्षक कविता में कवि एक सिणुक (तिनके) के भी अति शक्तिशाली हो सकने के तथ्य को रेखांकित करता है-  जो् कान/ सच्चाइ न सुणन/ फोड़ि सकूं/ जो आं्ख/ बरोबर न देखन/ खोचि सकूं/ जो दाड़/ भलि बात न बुलान/ उं दाड़न ल्वयै सकूं।                                                           मानवीय सामर्थ्य के बौनेपन का अहसास कराने वाली कविता ‘ज्यूंनि’, जिसमें गजल की रवानी है-मुझे बहुत अच्छी लगी-कूंणा्क तैं ज्यूनि, ज्यूं हर आदिम।/ सांचि कौ कूंछा-ज्यूनि बोकण जस लागूं/ उ ठेठर जो डाड़ मारि बेर सबूं कैं हंसूं / म्या्र आंखा्क पांणि में वी आदिम जस लागूं।
समाज का एक बड़ा वर्ग सर्वहारा वर्ग का है। वह एक तिनके की तरह कमजोर-निरीह-अल्पसंतोषी, आत्मसंतोषी है-


तिनाड़न कैं कि चैं ?/ के खास धर्ति नैं/ के खास अगास नैं/ के मिलौ/ नि मिलौ/ उं रूनीं ज्यून/ किलै, कसी ?/ बांणि पड़ि ग्येईं ज्यून रूंणा्क -तिना्ड़
‘भैम’ कविता में कवि का संदेश बहुत स्पष्ट है। दशहरे में फूंका जाने वाला रावण तो मात्र एक बहम है। फूंक सकते हो तो-
मेरि मानछा/ न बणाओ/ न भड़़्याओ मरी रावण/ जब ठुल-ठुल रावण छन जिन्द दुनी में/ करि सकछा/ उनन कें धरो चौबटी में/ उनूं कैं भड़्याओ/ खाल्लि/ भैम  भड़्यै बेर कि फैद ?
मनुष्य को मुंह तो खोलना ही होगा। आपाधापी और अनिश्चितता की आज की परिस्थितियों में यह और भी अध्कि आवश्यक हो चला है। ‘कओ’ कविता में कवि आह्वाहन करता है-
कओ,/ जोर-जोरैल कओ/ जि लै कूंण छू/ पुर मनचितैल कओ/ तुमि चुप न रओ/ निडर-निझरक है बेर/ अपण-पर्या भुलि बेर/ पुर जोरैल/ हकाहाक करो। 
आशा का स्वर- 
ह्वल उज्या्व, अर ए दिन जरूड़ै ह्वल/ मिं जानूं-तैसि न सकीणी क्वे रातै न्हें -हमा्र गौं में
‘उघड़ी आंखोंक स्वींण’ कविता, जिस पर इस काव्य संकलन को नाम दिया गया है, आशावाद की एक श्रेष्ठ कविता है, इसकी एक अन्तिका देखैं-
छजूणईं ईजा्क थान कैं/ बाबुक पूर्व जनमा्क दान कैं/ झाड़णईं झाड़/ छांटणईं गर्द/ समावणईं पुरुखनैकि था्ति/ चढ़ूणईं फूल-पाति/ दिणईं आपणि बइ/ हरण हुं दुसरोंकि टीस-पीड़/ राता्क धुप्प अन्या्र में/ मिं लै देखणयूं-उघड़ी आंखोंक स्वींण।
जीवन क्या है ? विषम परिस्थितियों में भी जी जाना ही तो-
चिफा्व सिमार बा्ट में लै, दौड़ छु ज्यूनि - ज्यूनि
फिरि लै-/ जि ऊंणईं आं्स त/ समा्इ बेर धरि ल्हिओ/ कभतै कत्ती/ हंसि आली अत्ती/ काम आल - डाड़ मारणैल
कवि ने छन्द-मुक्त कविता, गीत, गजल, क्षणिकायें, हाइकू आदि विविध रचना -शैलियों पर सार्थक रूप से अपनी लेखनी चलाई है। अनेक स्थलों पर बिम्बों और प्रतीकों का सहारा लिया है। अनेक अलंकार कवि की रचना में स्वतः आ गए हैं। कवि के पास एक समृद्ध कुमाउनी भाषा है। निम्न शब्द प्रचलन से हटते जा रहे हैं- 
गल्यूट, घ्यामड़, उदंकार, असक, एकमही, अद्बिथर, कट्ठर, कुमर, भुड़, पांजव जैसे ठेठ ग्रामीण कुमाउनी शब्दों का व्यापक और सही स्थान पर प्रयोग हुआ है। अनेक स्थलों पर मुहावरों, लोकोक्तियों का सटीक प्रयोग हुआ है, यथा-किरमोई बर्यात, गुईं जिबा्ड़, ब्याखुलिक स्योव, चोर मार, मरी पितर भात खवै, सतझड़ि करण, आंखन जाव लागण आदि। 
नवेंदु जी को अपनी तरुणावस्था तक अपने बाल्यकाल में नैनी-चौगर्खा (जागेश्वर) क्षेत्र के ग्रामीण परिवेश में रहने का अवसर मिला है। किसी भी भाषा को सीखने के लिए यही सर्वोत्तम आयु होती है। आगे चल कर कपकोट के बाहर भी उनको कुमाउनी परिवेश मिला। उनकी समृद्ध कुमाउनी का यही रहस्य है, जोआज की युवा पीढ़ी में कम ही दिखाई दे रहा है। पिफर घर के भीतर उन्हें अपने रचनाकार पिता का सानिध्य मिलता रहा, जिससे रचनाशीलता के लिए ललक और सामर्थ्य का निरन्तर विकास होता चला गया। उनके पिता श्री दामोदर जोशी ‘देवांशु’ हिंदी और कुमाउनी के एक सशक्त रचनाकार/ कवि हैं। स्वयं के लेखन और प्रकाशन के अतिरिक्त उन्होंन कुमाउनी रचनाधर्मियों के एकांकी, निबंध, कहानी आदि संग्रहों का समय-समय पर सम्पादन/प्रकाशन और कुमाउनी भाषा को आगे बढ़ाने में भारी सहायता की है। मेरी तो यही कामना है है कि नवेंदु जी साहित्य के क्षेत्र में अपने यशस्वी पिता से कहीं आगे निकलें, क्योंकि ‘पुत्रात शिष्यात् पराजयमम्’-यानी पुत्र और शिष्य से तो पराजय की ही कामना करनी चाहिए। अलमतिविस्तरेण। 


 -मथुरा दत्त मठपाल
महाशिवरात्रि पर्व,   सम्पादक-दुदबोलि (कुमाउनी वार्षिक पत्रिका)
10 मार्च 2013 ई.    पम्पापुर, रामनगर, नैनीताल जनपद।


प्रस्तुत कविता संग्रह में प्रदेश की लोक संस्कृति, सामाजिक सरोकारों, जीवन दर्शन, राजनीतिक प्रदूषण के साथ ही प्राकृतिक बिंबों को प्रदर्शित करती एवं वर्तमान हालातों की विषमताओं व विद्रूपताओं के बावजूद सकारात्मक सोच से आगे बढ़ने का संदेश देने वाली 114 कुमाउनीं कविताएं संग्रहीत हैं। इनमें तुकांत, लयबद्ध, गीत, गजल एवं आधुनिक जापानी हाइकू शैली की कविताएं भी शामिल हैं। दैनिक जीवन के बहुत छोटे तिनाड़ (तिनके), ढुड. (पत्थर), चिनांड़ (चिन्ह), सिंड़ुक (सींक), म्यर कुड़ (मेरा घर), अरड़ (ठंडा), रींड़ (ऋण) बुड़ बोट (बूढ़ा पेड़), बा्टक कुड़ (रास्ते का घर) व गाड़िकि रोड जैसे बिंबों के साथ ही राजअनीति, पहाड़ाक हाड़, इतिहास, पछ्याण (पहचान), बखत (समय), ज्यूनि अर मौत (जिंदगी और मौत), पनर अगस्ता्क दिन तथा घुम्तून हुं (पर्यटकों से अपील), बाग ऐगो, इंटरभ्यू में, गाड़ ऐ रै, हमा्र गौं में, परदेश जै बेर व मिं रूढ़िवादी भल (मैं रूंढ़िवादी ही ठीक) जैसी कविताएं मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक सरोकारों विषयों पर कटाक्ष करने के साथ ही इनसे उठने वाले सवाल उठाने के साथ उनके जवाब भी देती नजर आती है। साथ ही गहरे अंधेरे के बाद अवश्यमेव उजाला होने का विश्वास भी जगाती है।

पृष्ठ संख्या: 160, कुल कवितायेँ: 114, मूल्य पुस्तक: रुपए 250, मूल्य : PDF फॉर्मेट रुपये 150। 

पुस्तक P.D.F. फोर्मेट में रूपए 150 में (S.B.I. नैनीताल के खाता संख्या 30972689284 में जमाकर) ई-मेल से भी मंगाई जा सकती है।

प्रकाशक: जगदम्बा कम्प्यूटर्स एंड ग्राफ़िक्स, हल्द्वानी (नैनीताल), उत्तराखंड। 

दोस्तो,
मेरी  चुनिन्दा कुमाउनी कवितायें मेरे ब्लॉग 'ऊंचे पहाड़ों से.… जीवन के स्वर' के लिंक को क्लिक कर के देख सकते हैं। . 

बधाइयों, शुभकामनाओं एवं आशीर्वाद के लिए सभी मित्रों / अग्रजों का धन्यवाद, आभार, सुविधा के लिए पुस्तक नैनीताल के मल्लीताल स्थित कंसल बुक डिपो एवं माल रोड स्थित नारायंस में उपलब्ध करा दी गयी है। 


संपर्क करें: 

saharanavinjoshi@gmail.com

Mobile: 9412037779, 9675155117.

रिकार्ड भीड़ ने दी नैनीताल शरदोत्सव को विदाई

नैनीताल। नैनीताल शरदोत्सव 2013 को आखिरी दिन रिकार्ड भीड़ ने उत्साह के साथ नाचते-झूमते हुए अलविदा कहा। इस मौके पर इंडियन आइडिल के साथ ही देश-दुनिया में अपने प्रदर्शन से नाम कमा चुके मूलत: प्रदेश के ही कलाकारों, रुद्रपुर की कनिका जोशी व देहरादून के प्रियंका नेगी व कपिल थापा की गायकी के जादू पर धारचूला के सत्यवान सिंह नपलच्याल 'सत्या' की अगुवाई वाले डी-मानियाएक्स ग्रुप के हैरतअंगेज नृत्य ने ऐसा जादू बिखेरा की दर्शक स्थिर नहीं रह पाए, और जो जहां था वहीं झूमता नाचता नजर आया। कनिका ने सुप्रसिद्ध कुमाऊंनी लोकगीत कैले बजै मुरुली से शुरुआत की और प्रियंका व कपिल के साथ व अलग हिंदी फिल्मों के कई नए-पुराने डांस नम्बर गीतों से खूब जादू चलाया। उत्साह का आलम यह था कि मध्य रात्रि के करीब मजबूरन आयोजकों को कार्यक्रम के समापन की घोषणा करनी पड़ी। समापन के मौके पर डीएम अरविंद सिंह ह्यांकी ने कलाकारों और उनके परिजनों को स्मृति चिह्न बांटे एवं आयोजन में सहयोग देने वाले प्रशासनिक अधिकारियों, नगर पालिका प्रशासन एवं नगर की जनता का आभार जताया। 

शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

राहुल के पीएम बनने की कल्पना मूर्खता: कोश्यारी


नैनीताल (एसएनबी)। वरिष्ठ भाजपा नेता व पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी ने गत दिवस दागी जनप्रतिनिधियों संबंधी अध्यादेश को बकवास कहने वाले राहुल गांधी को ही नॉनसेंस करार दिया है। वह शुक्रवार को नैनी जिला कारागार परिसर में पत्रकारों के सवालों के जवाब दे रहे थे। राहुल गांधी के भावनात्मक भाषणों पर पूछे गए प्रश्न के उत्तर में कोश्यारी ने कहा कांग्रेस के उपाध्यक्ष के बयानों को कभी भी गंभीरता से नहीं लिया जा सकता। वह अपनी पार्टी में जिस पद पर हैं उसके भी योग्य नहीं हैं, लिहाजा उनके लिए प्रधानमंत्री बनने की कल्पना मूर्खता है। उन्होंने कहा, "जो व्यक्ति प्रधानमंत्री द्वारा तैयार विधेयक को 'नॉनसेंस' कहता है, वह खुद 'नॉनसेंस' है।"

कोश्यारी शुक्रवार को रुद्रपुर से गिरफ्तार 27 पार्टी कार्यकर्ताओंसे मिलने पार्टी नेताओं के साथ नैनी जिला कारागार पहुंचे थे। इस दौरान कोश्यारी मीडियाकर्मियों के सवालों के जवाब दे रहे थे। उन्होंने कहा आसन्न पंचायत चुनावों में अपनी हार की संभावनाओं को देख कांग्रेस सरकार बौखला गई है। इसलिए प्रदेश में सद्भावना का माहौल बिगाड़ना चाहती है। सरकार ने यदि तुरंत पार्टी नेताओं पर दर्ज मुकदमे वापस न लिए और बंदी बनाए कार्यकर्ताओं को तत्काल रिहा न किया तो प्रदेश भर में जेल भरो आंदोलन चलाया जाएगा। इस मौके पर देवेंद्र ढैला, गोपाल रावत, हेम आर्या, मनोज साह, संतोश साह, नितिन कार्की, सहित बड़ी संख्या में भाजपाई साथ रहे। किसी की नजर ना लगे, यह दुआ कीजिए : एक प्रश्न के जवाब में कि उनकी नैनीताल लोस सीट से दावेदारी पर कई लोगों की नजर लगी हुई है। इस पर कोश्यारी ने चुटकी ली और दुआ कीजिए कि किसी की नजर लग ना जाए। 

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

बड़े परदे पर आयी राजुला-मालूशाही की प्रेम कहानी

देश के प्रमुख महानगरों व थियेटरों में शुरू होने वाली पहली फिल्म होगी नगर के अनिल घिल्डियाल और अभिनेता हेमंत पांडे हैं प्रमुख भूमिका में
नैनीताल (एसएनबी)। प्रदेश की प्रसिद्ध प्रेमकथा राजुला-मालूशाही पर आधारित फिल्म राजुला शुक्रवार से देश के महानगरों के प्रमुख पीवीआर सिनेमाघरों में शुरू होने जा रही है। प्रदेश से जुड़ी फिल्मों के मामले में इसे पहला और ऐतिहासिक अवसर बताया जा रहा है। फिल्म में प्रदेश की लोक भाषाओं- कुमाउनीं व गढ़वाली के साथ ही हिंदी एवं अंग्रेजी भाषा का प्रयोग भी किया गया है। इस फिल्म में नगर के कलाकार अनिल घिल्डियाल के साथ ही सिने कलाकार हेमंत पांडे प्रमुख भूमिका में हैं। फिल्म राजुला में मुख्य खलनायक- मथुरा मामा का किरदार निभा रहे घिल्डियाल ने फिल्म की कहानी का खुलासा करते हुए बताया कि फिल्म में गढ़वाल की पृष्ठभूमि से जुड़ा एवं इंग्लैंड से पढ़ाई कर लौटा नायक दिल्ली में राजुला- मालूशाही नाटक देखते हुए प्रदेश की इस अप्रतिम प्रेमकथा पर शोध करने निकलता है। वहीं कुमाऊं की रहने वाली नायिका भी इसी प्रेम कथा पर अलग से शोध कर रही है। संयोग से दोनों मिल जाते हैं और शोध करते हुए दोनों में राजुला- मालूशाही की तरह ही प्रेम हो जाता है और वह फिल्म के कई दृश्यों में राजुला-मालूशाही के ऐतिहासिक किरदारों में प्रवेश करते हुए उस दौर की सांस्कृतिक झलक को प्रस्तुत करते जाते हैं। इस तरह दिल्ली के साथ नैनीताल से मुन्स्यारी तक फिल्माई गई यह फिल्म प्रदेश के पर्यटन, स्थापित्य एवं लोक संस्कृति की झलक पेश करती है। इसके साथ ही मनुष्य की संवेदनशीलता के जाति, धर्म, पंथ और क्षेत्र की सीमाओं से कहीं दूर होने का संदेश भी देती है। फिल्म का निर्माण हिमाद्रि प्रोडक्शन के लिए रमा उप्रेती ने निर्देशक नितिन उप्रेती, कहानीकार नितिन कुमार व मनोज चंदोला आदि के साथ मिलकर किया है। बताया गया है कि गत दिवस मुंबई में आयोजित फिल्म राजुला के प्रीमियर शो को बॉलीवुड से उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली हैं। 

रविवार, 13 अक्तूबर 2013

'दास' परंपरा के कलाकारों का नहीं कोई सुधलेवा


नैनीताल (एसएनबी)। सदियों से प्रदेश की लोक संस्कृति को समाज की उलाहना के बावजूद सहेजे हुए 'दास' परंपरा के कलाकारों की राज्य बनने के बाद भी किसी ने सुध नहीं ली। राज्य सरकार के उनकी कला को संरक्षित करने के दावे भी ढपोल शंख ही साबित हुए। बावजूद वह अब भी इस परंपरा को निभाए जा रहे हैं, और आगे की पीढ़ी को भी इसे थमाने की कोशिश है, लेकिन सशंकित भी हैं कि ऐसा कर भी पाएंगे या नहीं। 
नगर के पाषाण देवी मंदिर में इन दिनों नवरात्र के मौके पर रोज दूरस्थ बागेश्वर जनपद के रीमा क्षेत्र के जारती गांव निवासी दास परंपरा के कलाकार अनीराम व उनके भाई रमीराम अपनी दूसरी पीढ़ी के बेटों सुभाष, हरीश व ह्यात के साथ जमे हुए हैं, और रोज सुबह तड़के से लेकर अलग- अलग समयों पर अपनी विशिष्ट पोषाक के साथ गले में बड़े घुंघरुओं का छल्ला डालकर विजयसार (ढोल, दमुवा, नगाड़ा व भौंकर के समन्वय) पर नौबत (सुबह चार बजे देवताओं के स्नान की पूजा के समय का विशिष्ट संगीत) तथा निराजन (देवताओं के भोग के समय का अलग संगीत) आदि बजाते हुए अपना योगदान दे रहे हैं। रमी राम बताते हैं, विजयसार के साथ देवताओं के आह्वान का यह कार्य उन्हें विरासत में मिला है। अपने गृह क्षेत्र स्थित मूल नारायण के मंदिर में यह उनकी रोज की दिनर्चया का हिस्सा है। लोक संस्कृति में बिना दासों के द्वारा संगीत का यह योगदान दिए बिना देवताओं की दैनिक पूजा संभव ही नहीं है। बचे समय में शादी-बारात में भी जाते हैं, लेकिन बीते दशकों में बैंड बाजे के आने से शादियों में पहाड़ी ढोल-दमुवा, नगाड़े, तुतरी व बीन बाजे के कलाकार इस पैतृक कार्य से बेरोजगार हो गए हैं। केवल नाकुरी पट्टी क्षेत्र में ही उन जैसे गिने-चुने कलाकार राज्य सरकार की किसी योजना की उन्हें जानकारी भी नहीं है। उनके पास प्रदेश के लोक देवता मूल नारायण, प्रदेश की प्रसिद्ध प्रेम कथा राजुला-मालूशाही , जागर, जुन्यार आदि का पारंपरिक ज्ञान है, लेकिन उसके संरक्षण की किसी योजना से भी वह अनजान हैं। बताते हैं कि वाद्य यंत्रों की मढ़ाई में ही हजारों रुपये खर्च होते हैं। परिवार चलाना बेहद मुश्किल हो रहा है। वहीं पाषाणदेवी मंदिर में नवाह ज्ञान यज्ञ करा रहे आचार्य भगवती प्रसाद जोशी का कहना है कि पहाड़ में गुरुओं (पंडितों) और दासों की किसी भी धार्मिक आयोजन में समान व बड़ी भूमिका रहती है। पंडित तो किसी प्रकार पंडिताई को जारी रखे हुए हैं, लेकिन दासों की कला संरक्षण के अभाव में विलुप्ति की कगार पर है। वह इस कला को संरक्षित करने के उद्देश्य से हर वर्ष इन्हें बुलाते हैं।